राजनीति

दिल्ली की जंग केजरी के संग

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मुझे कानून और संविधान की ख़ास जानकारी नहीं है, जो भी लिख रहा हूँ मीडिया रिपोर्ट और कुछ विशेषज्ञों की राय को आधार मान कर ही लिख रहा हूँ. जैसा कि पिछले लगभग एक सप्ताह से या कहें १० दिन से दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल और उपराजयपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) नजीब जंग के बीच अधिकारों को लेकर जंग जारी है और यह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. दिल्ली के उच्च अधिकारियों, मुख्य सचिव आदि की नियुक्ति को लेकर जो काम आपसी सलाह मशविरा करके शांतिपूर्ण ढंग से किया जा सकता था वह दोनों के लिए अहम की लड़ाई बन गयी है. दोनों अपने अपने निर्णय पर अडिग नजर आते हैं. अब आइये इस जंग की समीक्षा करें.

राम जेठमलानी, सुब्रमण्यम स्वामी तो सीधे सीधे भाजपा के ही चेहरे हैं, राजीव धवन, के टी एस तुलसी तटस्थ तो फुल्का भी कभी भाजपा के ही थे. ये सभी आज देश के वरिष्ठ एवं सम्मानित वकील हैं. इन सबकी राय में उपराज्यपाल गलत हैं और दिल्ली सरकार सही है. संविधान तो इतना Vague (अस्पष्ट) है कि सभी अपनी सुविधा के अनुसार इसकी ब्याख्या करने लगते हैं, लेकिन प्रश्न है कि केंद्र सरकार लोकतंत्र की sanctity (शुचिता) खत्म करने पर तुली है.

दिल्ली में चल रही केजरीवाल और नज़ीब के बीच की जंग में केन्द्र सरकार ने उप-राज्यपाल नज़ीब जंग का साथ देते हुए कहा है कि अफसरों के ट्रांसफर और पोस्टिंग का पहला अधिकार राज्यपाल को है. केन्द्र सरकार ने दिल्ली सरकार को नोटिफिकेशन भेजा है, जिसमें साफ तौर पर 239AA का हवाला देते हुए कहा गया है कि उप-राज्यपाल नज़ीब जंग का फैसला बिलकुल सही है. ट्रांसफर और पोस्टिंग उप-राज्यपाल के अधिकार के तहत आता है.

इस फैसले पर दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ट्वीट कर कहा है कि यह नोटिफिकेशन एक फतवा है, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने इसे बीजेपी की हार बताया है.

वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी का कहना है कि केंद्र सरकार का दिल्ली के बारे में नया नोटिफिकेशन सिर्फ एक “रद्दी का टुकड़ा” है. जाने माने वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम भी इस नोटीफिकेसन को गलत बता रहे हैं. अब केजरीवाल ने इस नोटिफिकेशन पर चर्चा के लिए दिल्ली विधान सभा का विशेष सत्र दो दिनों के लिए २६ और २७ मई को बुलाया है, देखते हैं इस चर्चा के क्या नतीजे निकालकर सामने आते हैं.
भारत की जनता ने पर्दे पर एक दिन के मुख्यमंत्री की ”नायक” वाली भूमिका में ”अनिल” को देखा है. उस ”नल-नील” की ताकत को भी आत्मसात किया है जिसकी ”कारीगरी” से तैरते पत्थरों वाला पुल पार कर के ”राम की सेना” ने ‘लंकापति रावण का मान-मर्दन’ किया था. उसी जनता ने रोमेश भंडारी जैसे ”महामहिम” की महिमा से मंडित ”एक दिन के मुख्यमंत्री” जगदंबिका पाल का ”मान-मर्दन” होते हुए भी देखा है. इसी जनता-जनार्दन ने ”उन्चास दिन वाले नायक” को ‘सड़सठ’ की ताकत देकर नल-नील वाली ‘इंजीनियरिंग’ शक्ति देने की कोशिश की. पर ”समुद्र” इतनी आसानी से रास्ता दे दे, ये संभव नहीं है…. जिसे हम ”समुद्र का अहंकार” समझ रहे हैं वो ”रावण का भय” भी हो सकता है. लोग इंतजार में हैं कि ”राम” कब ये कहने को विवश होते हैं…
”विनय न मानत जलधि जब, गये तीन दिन बीत
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।।”

मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के ”दंगल” ने अब अपना अखाड़ा बदल लिया है. अब यह दंगल भाजपा और ‘आप’ के बीच शुरू हो गया है. ‘आप’ के नेताओं का मानना है कि उप-राज्यपाल नजीब जंग केंद्र सरकार के इशारे पर अरविन्द केजरीवाल सरकार को ठप्प करने पर उतारू हैं. वे न तो किसी अफसर की नियुक्ति और न ही तबादला करने दे रहे हैं. सभी महत्वपूर्ण विभागों की फाइलें सीधे अपने पास मंगा रहे हैं. अफसरों को वे ही निर्देश कर रहे हैं. वे दिल्ली की सरकार को उसी तरह चला रहे हैं, जैसे कि वे पिछले साल चला रहे थे, जब वहाँ कोई चुनी हुई सरकार नहीं थी.

अरविन्द केजरीवाल ने मोदी जी को पत्र भी भेजा है. उनके आरोप केंद्र सरकार पर हैं कि सरकार के इशारे पर ही सब कुछ हो रहा है. कुछ हद तक ये सही हो सकता है, क्योंकि किसी भी उप-राज्यपाल की अपनी तो कोई हैसियत नहीं होती. वह जनता के द्वारा चुना नहीं जाता. वह तो केंद्र का नुमाइंदा होता है. राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है और राष्ट्रपति केद्र सरकार की इच्छा के बिना अपनी उंगली भी नहीं हिला सकते. लेकिन नजीब जंग ने जो भी आदेश जारी किए हैं, उनके पीछे संवैधानिक प्रावधान हैं, ऐसा उनका कहना है.

संविधान वैसा ही होता है, जैसी उसकी व्याख्या की जाए. अलग-अलग संविधान-शास्त्रियों की राय भी दोनों तरफ झुकती दिखाई पड़ती है. ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति की राय सर्वोपरि होती है. राष्ट्रपति से नजीब और अरविन्द दोनों मिल चुके हैं लेकिन वो फिलहाल मौन हैं. दिल्ली सरकार का दंगल जारी है.

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि प्रचंड और अपूर्व बहुमत से चुनी हुई सरकार उप-राज्यपाल की कठपुतली कैसे बनी रह सकती है? लेकिन क्या भारत की केन्द्रीय राजधानी दिल्ली में दो पूरी सरकारें एक साथ चल सकती हैं? इसीलिए दिल्ली को केंद्र-शासित क्षेत्र कहा जाता है. इस दुविधा का समाधान दंगल से नहीं, बातचीत से निकल सकता है. अब सीधी बातचीत मोदी सरकार और केजरीवाल सरकार के बीच होनी चाहिए. यदि यह दंगल इसी तरह चलता रहा तो दोनों सरकारों की छवि खराब होगी और पिसेगी दिल्ली की जनता जिसने वर्तमान दोनों को सरकारों को पदासीन किया है. फिलहाल के सर्वे बतला रहे हैं – दिल्ली में सौ दिन के काम काज से ५९% संतुष्ट हैं जबकि ४१ % असंतुष्ट हैं. अभी अगर चुनाव हुए तो आप को ५३% और भाजपा को ३७% मत मिलेंगे. केजरीवाल अभी भी दिल्ली के लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. यंही जनता उनके साथ है फिर संविधान की आड़ में केजरीवाल के ‘पर’ कतरने की कोशिश कहीं से जायज नहीं दीखता. मोदी जी ने भी अपनी पसंद की टीम बनाई है सभी चुनी हुई सरकारें अपने पसंद की ट्रीम बनाती है फिर दिल्ली में राज्यपाल सर्वे सर्वा क्यों ? दिल्ली की जनता को सजा क्यों? यदि उप राज्यपाल ही सर्वेसर्वा है तो चुनाव का नाटक क्यों?

जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

2 thoughts on “दिल्ली की जंग केजरी के संग

  • आप सही कह रहे हैं … अब सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें शामिल कर लिया गया है और उनका फैसला ही सर्वमान्य होगा.

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका लेख अच्छा है. आपकी इस बात में दम है कि प्रचंड बहुमत से चुनी हुई सरकार को उपराज्यपाल की कठपुलती कैसे बनाया जा सकता है. लेकिन पूर्ण राज्य न होने के कारण ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. नगर निगमों के मेयर भी प्रचंड बहुमत से चुने जाते रहे हैं, लेकिन उनको अधिक अधिकार नहीं होते और नगर प्रशासक के अधीन रहकर कार्य करना होता है. यही दिल्ली के मामले में समझ लीजिये.
    इसका समाधान यह है कि या तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाये या उसे चंडीगढ़ की तरह केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाये. यह भी हो सकता है कि राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और उसके आसपास के क्षेत्र को केन्द्रशासित बनाकर शेष दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दिया जाये.

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