सामाजिक उन्नति विषयक सुझाव और हमारी प्रतिक्रिया
हमारे एक लेख “महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की राष्ट्र को सामाजिक देन” पर वयोवृद्ध मानव उन्नति के हितैशी श्री गुरमेल सिंह भमरा, लन्दन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिख कि “लेख अच्छा लगा। अगर लोग समझे तो बहुत तब्दिलियां आ सकती हैं। अब तो लोग पढ़ लिख गये हैं। छोटी जातियों को ऊपर उठाने की जरूरत है ताकि देश का विकास ज्यादा हो। रूढि़वादी विचार का खंडन होना चाहिये। दयानन्द जी के विचारों को फैलाने की जरूरत है।”
हमने सम्मानीय श्री गुरमेल सिंह जी की प्रतिक्रिया उत्तर देते हुए उन्हें लिखा कि ‘लेख पढ़ने एवं पसन्द करने के लिए हृदय से आपका आभार। आपके विचारों से पूर्णतयः सहमत हूं। लोग सच्चाई व सुधार को तब समझेंगे जब वेदों का धुंआधार प्रचार होगा। इसके लिए हमें समाज में प्रचलित गलत व बुरी मान्यताओं का खण्डन एवं सत्य वैदिक मान्यताओं का तर्क, युक्ति, प्रमाण व दृष्टान्तों के आधार पर पोषण करना होगा। सरल, सुबोध, जनसामान्य की भाषा में छोटी-छोटी पुस्तकों को तैयार कर ईसाईयों की तरह उसे घर-घर पहुंचाना होगा। लोग उन्हें पढ़े, चर्चा करें, शंका समाधान करें, इसके लिए लोगों को प्रोत्साहित भी करना होगा। स्वयं का आचरण उच्च कोटि का रखना होगा। तभी सामाजिक तबदीलियां आ सकती है, जिसका कि आपने उल्लेख किया है। यह भी कहना है कि अब लोग पढ़ लिख तो गये हैं परन्तु उनमें सच्चे धार्मिक व आध्यात्मिक तथा सामाजिक कर्तव्यों के ज्ञान का अभाव है और अधिकांश लोग आर्थिक स्वार्थों के साथ काम, क्रोध, लोभ व मोह से अत्यधिक ग्रस्त हैं। इन पंक्तियों का लेखक यह भी अनुभव करता है कि जब तक संसार में मत-मतान्तर व गुरूडम विद्यमान रहेंगे, इन सब के अनुयायी व नेता अपनी संख्या बढ़ाने व मैं अधिक अच्छा व दूसरे कम अच्छे वा बुरे की भावना का प्रचार करने में लगे रहेंगे जिससे सामाजिक समरसता उत्पन्न नहीं हो सकती। ऐसा ही बिगाड़ राजनैतिक दल भी करते हैं जो अपने लाभ के लिए लोगों को आपस में बांटते हैं। इससे भोली जनता दिग्भ्रमित होती है। इन सब से सामाजिक परिवर्तन लाने में बाधा उत्पन्न होती है। लोगों का जीवन ऊपर उठाने के लिए निःशुल्क व उच्च कोटि की अनिवार्य नैतिक व सामयिक शिक्षा का प्रबन्ध करना होगा। लोगों के जीवन से मांसाहार, मदिरापान, नशा, तम्बाकू व तामसिक भोजन को छुड़ाने के साथ उनमें वैदिक ग्रन्थों, सत्यार्थ प्रकाश व व्यवहारभानु आदि के नियमित व दैनन्दिन स्वाध्याय की आदत डालनी होगी। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि सत्यार्थ प्रकाश ईश्वर ज्ञान वेदों की व्याख्या मात्र है न कि अन्य मतों व धर्मों की भांति कोई साम्प्रदायिक ग्रन्थ। यदि हमारे सभी दलित व पिछड़े बन्धु तथा उनके परिवार अपने जीवन से नशा, मांसाहार, तामसिक भोजन छोड़कर वेदों व विज्ञान आदि की शिक्षा पर अधिकाधिक ध्यान देने के साथ शाकाहारी भोजन, फलाहार व गोदुग्धाहार करने पर ध्यान दें, तो उनका सुधार व उत्थान हो सकता है। आर्यसमाज इस कार्य में उनका सहयोग कर सकता यदि वह लेना चाहें। परन्तु आजकल नैतिक उत्थान चाहने वाले लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं। श्री गुरमेल सिंह जी के बहुमूल्य समाज सुधार के पक्षधर सभी विचारों का हृदय से सम्मान करता हूं और आपको हार्दिक धन्यवाद देता हूं।’
हम सभी सुहृद बन्धुओं के ध्यान व लाभार्थ यह पत्रव्यवहार विनम्र व श्रद्धाभाव से प्रस्तुत कर रहे हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन जी , आप ने इस लेख में मेरे प्रश्न का जवाब बहुत अच्छी तरह दिया है. जब भी मैं टीवी पे धर्म के बारे में देखता हूँ और घर वापसी की बातें देखता हूँ तो मेरे मन में एक सवाल आता है कि यह कैसी घर वापिसी है , पहले अपने घर में रहने ना दो और जब वोह किसी और के घर चला जाए तो फिर उस को घर वापिस आने के बारे में कहने की कोई तुक नहीं बनती. मेरा प्रश्न बहुत सीधा है कि अपना धर्म छोड़ कर इसाई या मुसलमान बनता कियों है . अगर मेरे ही घर में मुझ से नफरत हो रही है तो मैं कियों इस घर में रहूँगा ?. अगर मुझे मंदिर में ही जाने नहीं देंगे तो मैं कहाँ जा कर प्रभु प्राथना कर सकूंगा ?. जो काम सुआमी दया नन्द जी ने किया , वोह ही सिखों के दस गुरुओं ने किया था. लंगर प्रथा में सभी लोगों को एक जगह बैठना होता है , अकबर जैसे बादशाह ने भी लंगर में दूसरों के साथ बैठ कर भोजन किया था और देख कर बहुत पर्सन हुआ था और दसवें गुर गोबिंद सिंह जी तो कमाल ही कर दिया कि पांच पिआरे नीची जातों से लिए थे और उन को शुद्ध करके बराबर बना दिया था . आज सिखों में जातिवाद अभी भी है लेकिन इतना बुरा नहीं .इसी लिए सिखों में से इस्लाम या इसाई धारण कोई नहीं करता . लाखों में कोई एक हो सकता है लेकिन एक सिख को अपना धर्म छोड़ने की जरुरत ही नहीं . अब तो चर्मकार और मिहतर लोग भी गुरदुआरे जाते हैं . यहाँ इंग्लैण्ड में तो बच्चे आपिस में शादीआं भी करने लगे हैं . दया नन्द जी तो बहुत महान थे .उन को समझने की जरुरत है और हिन्दू समाज को एक हो जाने की जरुरत है , फिर यह घर वापिसी की जरुरत नहीं पड़ेगी . पहले अपने ही घर को शुद्ध करो . ऐसे घर वापसी नहीं होगी बलिक ज़ाकर नाएक जैसे लोग कामयाब होते रहेंगे किओंकि जो बातें वोह करता है , हिन्दू धर्म गुरुओं के पास उस का जवाब है ही नहीं .
नमस्ते एवं धन्यवाद श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी। आप के विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ। हमारे पूर्वजों ने गलतियां की और वर्तमान के भी बहुत से लोग अपने बन्धुवों के प्रति उचित व्यवहार नहीं कर रहें है। परन्तु जो समझदार हैं उन्हें गलती करने वालों को भी समझाना है और जो जाने अनजाने घर छोड़ कर चले गएँ हैं उन्हें भी मना कर वापिस घर में लाना है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो भावी परिणाम बहुत भयंकर होंगे जिसका शायद कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। वैदिक धर्म ही मनुष्य धर्म हैं। अन्य तो मत या मतान्तर है जो मनुष्य धर्म से ज्येष्ठ व श्रेष्ठ नहीं हो सकते। अतः वेदो का प्रचार सभी मतों के अनुयायियों में करके उनके जीवनों को संवारना है। इसी में मानव जाति का भला है। महान सिख गुरु भी वैदिक धर्मी हिन्दुओं से आये थे और उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कुर्बानिया दी व अनेक समयानुकूल अच्छे अच्छे कार्य किये। सारा हिन्दू समाज उनका चिरऋणी है। हमें अपने सिख गुरुओं पर गर्व है। महर्षि दयानंद जी ने उसी कार्य को समृद्ध किया। उन्होंने सच्चे व अच्छे किंवा सर्वोत्तम वैदिक मानव धर्म का स्वरुप विश्व के सम्मुख रखा। देश विदेश में बहुत से लोगो ने उसे समझा व उसकी व उनकी सराहना की। हमें उसी मार्ग पर चल कर उसे संपन्न व सफल करना है। हमें हिन्दू समाज को भी एक करने की जरुरत है और विश्व समाज को भी एक करने की जरुरत है। यह कार्य सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग के फार्मूले से होगा। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
मनमोहन जी , आप के विचारों से मैं सहमत हूँ , आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं .
नमस्ते एवं धन्यवाद श्रद्धेय महोदय। सादर हार्दिक धन्यवाद। आपके आशीर्वाद की अपेक्षा है।
भाई गुरमेल जी का प्रश्न और उस पर आपका उत्तर दोनों सामयिक और उपयोगी हैं. आभार !
धन्यवाद जी एवं आभार।