अपना सर्वस्व भारतमाता को समर्पित करने वाले देशभक्त वीर सावरकर
ओ३म्
132 वीं जयन्ती 28 मई पर
जब हम देशभक्त महापुरूषों को याद करते हैं तो उनमें से एक अग्रणीय नाम वीर विनायक दामोदर सावरकर जी का आता है। सावरकर जी ने देश भक्ति के एक नहीं अनेको ऐसे कार्य किये जिससे यह देश हमेशा के लिए उनका ऋणी है। उनकी माता राधा बाई धन्य हैं जिसने वीर सावरकर जी जैसे निर्भीक, देश भक्त और धर्म वीर पुत्र को जन्म दिया था। वीरसावरकर जी अपनी माता के पुत्र तो थे ही परन्तु वह भारतमाता के भी अन्यतम पुत्र थे। वेदों में कहा है कि ‘माता भूमि पुत्रो अहम् पृथिव्याः’ अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। वेद की इस सूक्ति का अर्थ समझने वाले भारत में बहुत कम लोग हैं। भूमि हमारी माता क्यों है, यदि इस पर विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि माता के दुग्ध पान की ही तरह भूमि माता भी हमें अन्न, जल, निवास, वस्त्र, सुरक्षा, औषधि, बन्धु व बान्धवों से पूर्ण कर सुख व आनन्द प्रदान करती है। माता व पिता के जिन प्रजनन तत्वों से हमारा शरीर अस्तित्व में आता है वह भी हमारी प्रिय भूमि माता की ही देन हैं। भूमि माता के यदि उपकारों का चिन्तन करें तो हम पाते हैं कि हमारी माता के समान अथवा कुछ अधिक ही भूमि माता के हम पर उपकार हैं। अपनी माता का ऋण तो हम सेवा सत्कार कर कुछ चुका सकते हैं, परन्तु भूमि माता का ऋण तो किसी प्रकार से भी चुकाया नहीं जा सकता। भूमि माता के ऋण को चुकाने का केवल एक ही तरीका है और वह वही है जैसा महर्षि दयानन्द जी ने किया अर्थात् देशोपकार के कार्यों को करके। उन्होंने अपने सभी हितों व सुखों को देश व ईश्वर की प्रजा अर्थात् संसार के सभी मनुष्यों के सुख व हित के लिए बलिदान किया। इसी का कुछ अनुकरण देशभक्त वीरों ने किया जिन्होंने हसंते हसंते फांसी के फन्दों को चूमा और देशभक्ति के अनेक कार्य किये तथा असीम दुःख उठाये। यह आजादी किन्हीं एक या दो व्यक्ति या महापुरूषों की देन नहीं है अपितु महर्षि दयानन्द सहित अनेकों महापुरूषों व देशवासियों के देशभक्तिपूर्ण कार्यों का परिणाम है। देशों की इसी श्रृंखला में प्रथम पंक्ति के एक प्रमुख महापुरूष वीर सावरकर जी हैं जो देशभक्ति के अनेकानेक प्रातःस्मरणीय बलिदान की भावना से पूर्ण कार्यों को करके जीवित बलिदानी ही नहीं बने अपितु उन्होंने सैकड़ों क्रान्तिकारियों को बौद्धिक दृष्टि से तैयार कर भारत माता के ऋण को उतारा है। आईये, उनके जीवन की कुछ घटनाओं को स्मरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
वीर विनायक दामोदर सावरकर जी का बचपन का नाम तात्या था। आपका जन्म 28 मई, सन, 1883 को ग्राम भागूर जिला नासिक, महाराष्ट्र में हुआ था। घर में आपके माता-पिता और तीन भाई थे। घर में प्रतिदिन भगवती दुर्गा की पूजा होने के साथ रामायण व महाभारत की कहानियां भी बच्चों को सुनने को मिलती थी। महाराणा प्रताप व वीर शिवाजी के वीरतापूर्ण प्रसंग भी आपको माता-पिता से सुनने को मिलते थे। 10 वर्ष की आयु में आपकी माता राधा बाई जी का देहान्त हो गया। आप गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। बचपन में शस्त्र चलाने का अभ्यास भी करते थे। कुश्ती का शौक भी आपको हो गया था। इन्हीं दिनों आपके इलाके में प्लेग फैला। एक एक करके बिना औषधोपचार के लोग मरने लगे। अंग्रेजों ने इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया जिससे सावरकर जी और क्षेत्र के लोगों में सरकार के प्रति रोष उत्पन्न हुआ। इसी कारण चाफेकर बन्धुओं ने वहां के अंगे्रज कमिश्नर की हत्या कर दी। अंग्रेजों द्वारा मुकदमें का नाटक किया गया और इन वीर चाफेकर पुत्रों को फांसी दे दी गई। इससे व्यथित वीर सावरकर जी ने निर्णय किया कि इस अन्याय का बदला अवश्य लेंगे। बड़े होकर आप नासिक जिले के फग्र्युसन कालेज में पढ़ने के लिए गये। यहां आपने ‘मित्र–मेला’ नाम की देशभक्त युवकों की एक संस्था बनाई। इसका सदस्य बनने के लिए युवकों को यह घोषणा करनी पड़ती थी कि आवश्यकता पड़ने पर वह देश पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दंेगे। सभी सदस्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा प्रकाशित देशभक्ति से पूर्ण समचार पत्र ‘केसरी’ व अन्य पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते थे। महाराणा प्रताप व वीर शिवाजी की जयन्तियां भी आपके द्वारा मनाई जाती थी। 22 मार्च सन् 1901 को इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया का देहावसान हुआ। अंग्रेजों द्वारा देश भर में शोक मनाये जाने की घोषणा की गई। तात्या ने ‘मित्र–मेला’ संगठन की बैठक बुलाई और उसमें भाषण दिया। आपने भाषण में कहा कि महारानी विक्टोरिया हमारे देशवासियों की शत्रु थी, उन्होंने हमें गुलाम बनाया हुआ है। हम उनके लिए शोक क्यों मनायें? समाचार पत्रों में इससे सम्बन्धित समाचार प्रकाशित होने से अंगे्रजों को इस घटना का पता चला और सावरकर जी को फग्र्युसन कालेज से निकाल दिया गया। लोकमान्य तिलक को इस घटना का पता चलने पर उनके मुंह से निकला कि ‘लगता है कि महाराष्ट्र में शिवाजी ने जन्म ले लिया है।’ इसके बाद तिलक जी ने सावरकर जी को बुलाकर उनके शौर्य की प्रशंसा की और उन्हें आशीर्वाद सहित सहयोग का आश्वासन दिया।
देश के लोगों में देशभक्ति की भावना भरने के लिए तिलक जी के आशीर्वाद से आपने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का आन्दोलन चलाया जो अपेक्षा के अनुरूप सफल रहा। देश भर में स्थान स्थान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई जिससे देशवासी अंग्रेजों की गुलामी से घृणा करने लगे। इस पर लोकमान्य तिलक जी ने कहा कि “यह आग विदेशी साम्राज्य को भस्म करके ही दम लेगी।” बी.ए. पास करने के बाद आपने लन्दन जाकर वहां से वकालत करने का निर्णय लिया। 9 जून सन् 1906 को आप लन्दन के लिए रवाना हुए और वहां पहुंच कर महर्षि दयानन्द के साक्षात शिष्य व क्रान्तिकारियों के आद्यगुरू तथा आर्य पण्डित की उपाधि से अलंकृत पण्डित श्यामजी कृष्ण वम्र्मा के इण्डिया हाउस में निवास किया जहां पहले से अनेक क्रान्तिकारी युवक रहा करते थे। यहां आकर आपने पहला काम अंग्रेजों द्वारा लिखित भारत के इतिहास को पढ़ा। आप ने अपनी अन्तर्दृष्टि से जान लिया कि यह इतिहास पक्षपातपूर्ण है जिसमें भारतीयों से न्याय नहीं किया गया है। आपने भारतीयों का सच्चा इतिहास देशवासियों के सामने लाने का निर्णय किया। आपने कुछ ही काल में कई पुस्तकों की रचना कर डाली। आपकी एक प्रमुख कृति ‘सन् 1857 का भारत का प्रथम स्वातन्त्र्य समर’ है जिस पर प्रकाशन से पूर्व ही अंग्रेजों ने प्रतिबन्ध लगा दिया गया। प्रकाशन से पूर्व किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध की विश्व इतिहास की यह प्रथम घटना थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा क्रान्तिकारी शहीद भगत सिंह जी ने इस पुस्तक को पढ़ा और इसे भारी संख्या में छपवाकर युवकों में निःशुल्क वितरण कराया। यह पुस्तक लन्दन में लिखी गई और वहां से प्रतिबन्ध लगने पर भी कैसे सुरक्षित भारत पहुंच गई, यह एक रहस्य है। हमने यह पुस्तक पढ़ी है और हम अनुभव करते हैं कि प्रत्येक भारतीय को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये। इतने अधिक तथ्यों को इकट्ठा करना और अल्प समय में उसे इतिहास के मापदण्डों के अनुसार रोचक रूप में प्रस्तुत करना एक आश्चर्यजनक घटना है जिसका अनुमान पुस्तक को पढ़कर ही लगाया जा सकता है।
आप इटली के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी मैजिनी से इतने अधिक प्रभावित थे कि आपने इन पर एक पुस्तक की ही रचना कर डाली। विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को देश भक्ति की शिक्षा देने के लिए आपने सन् 1857 की क्रान्ति के स्मृति दिवस के अवसर पर इसके प्रमुख तीन अमर हुतात्माओं वीर कुवंर सिंह, मंगल पाण्डे तथा महारानी लक्ष्मी बाई को स्मरण करने का निर्णय किया और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को सुझाव दिया कि वह इस दिन अपने कोट पर एक बिल्ला लगायें जिस पर लिखा हो कि “सन् 1857 की क्रान्ति के शहीदों की जय”। इस घटना से इंग्लैण्ड की सरकार चौंक गई और वीर सावरकर जी के विरूद्ध खुफिया निगरानी और बढ़ा दी गई। भारतीय युवक मदनलाल ढ़ीगरा जी ने लन्दन में वीर सावरकर जी से देशभक्ति पर चर्चा की। ढ़ीगराजी ने कर्जन वायली की हत्या की योजना पर आपसे विस्तृत बातचीत की तथा दोनों में इसकी सहमति हुई। 11 जुलाई सन् 1909 को लन्दन के जहांगीर हाल में एक बैठक में भारतीयों पर अत्याचारों के दोषी कर्जन वायली उपस्थित थे। पूर्व जानकारी प्राप्त करके मदनलाल ढ़ीगरा और वीर सावरकार आदि क्रान्तिकारी वहां पहुंच गये। बैठक के दौरान प्राणवीर मदन लाल ढ़ीगरा की पिस्तौल से गोली चली और कर्जन वायली वहीं ढेर हो गये। एक अंग्रेज ने ढीगरा जी को पकड़ने की कोशिश की और वह भी उनकी पिस्तौल की गोली से अपने प्राण गंवा बैठा। इस घटना के परिणाम स्वरूप भारतमाता के वीर सपूत व युवकों के प्रेरणास्रोत बने श्री मदनलाल ढ़ीगरा जी को 16 अगस्त सन् 1909 को लन्दन में फांसी दे दी गई। कर्जन वायली की हत्या के विरोध में एक निन्दा प्रस्ताव पारित करने के लिए कुछ दिन बाद सर आगा खां ने लन्दन में एक बैठक का आयोजन किया। शोक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ जिसमें कहा गया कि हम सब सर्वसम्मति से कर्जन वायली की हत्या की निन्दा करते हैं। इसके विरोध में वहां बैठे वीर सावरकर खडे़ हुए और दृणता से बोले कि सर्वसम्मति से नहीं, मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं। इस अद्भुद शौर्य पूर्ण घटना से अंग्रेजों को कर्जन वायली की हत्या में वीर सावरकर का हाथ होने का शक हुआ। उन पर निगरानी अब पहले से अधिक कड़ी कर दी गई। मित्रों के परामर्श से वह पेरिस चले गये परन्तु वहां मन न लगने पर परिणाम की चिन्ता किए बिना लन्दन लौट आये।
वीर सावरकर जी के पेरिस से लन्दन वापिस आते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 15 सितम्बर, 1910 को उन पर मुकदमा चला और 23 जनवरी 1911 को उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया गया। इसके बाद ‘मेरिया’ नामक जहाज में बैठा कर उन्हें भारत भेजने का प्रबन्ध किया गया। जहाज के चलने पर वह चिन्तन मनन में खो गए। उन्हें जहाज में एक अंग्रेज पत्रकार से पता चला कि देश की आजादी के लिए आन्दोलन करने के कारण उनके दो भाई भी भारत की जेलों में हैं। इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी कि मुझे गर्व है कि मेरा पूरा परिवार ही भारत माता को दासता की बेडि़यों से मुक्त कराने के कार्य में संलग्न है। जेलों में पड़कर जीवन समाप्त करने की अपेक्षा उन्होंने भारत माता के लिए कुछ ठोस कार्य करने के बारे में सोचा। इसके लिए उन्होंने जहाज से भागने का विचार किया। वह शौचालय में गये और उसके रोशनदान को उखाड़कर उससे समुद्र में कूद पड़े। अंग्रेज पुलिस उन पर गोलियों की बौछार करने लगी और वह तैर कर आगे बढ़ रहे थे और अधिकांश समय पानी के अन्दर ही रहते थे। इस स्थिति में उन्होंने पास के किसी द्वीप में पहुंचने का निर्णय किया। वह फ्रांस के एक द्वीप पर पहुंच गये जहां के सिपाही ने सावरकर जी के गिरफ्तार करने के निवेदन को अनसुना कर उन्हें ब्रिटिश सैनिको को सौंप दिया। यदि पुलिस फ्रांस का सिपाही उन्हें गिरफ्तार कर लेता तो अन्तराष्ट्रीय नियमों के अनुसार वह अंग्रेज सैनिकों की गिरफ्तारी से वह बच सकते थे। गिरफ्तार कर उनके शरीर पर बेडि़या डाल दी गई जिससे वह हिल-डुल न सकें। इस प्रकार से बन्दी बनाकर उन्हें एक नाव से उसी जहाज, जिससे वह कूदे थे, पर लाकर भारत पहुंचाया गया जहां उन पर फिर मुकदमा चला और उन्हें कालापानी की सजा दी गई। उनकी सजा दो जन्मों के कारावास की थी जिसके अन्तर्गत उन्हें 50 वर्षों तक कालापानी में बिताने थे। दो जन्मों की सजा सुनाये जाने पर भी सावरकर जी मुस्कराये थे और अंग्रेज जज को उन्होंने कहा था कि आप ईसाई लोग तो बाइबिल के अनुसार दो जन्म मानते ही नहीं हैं फिर आपका मुझे दो जन्मों का कारावास देना हास्यापद ही है।
इस सजा को काटने के लिए उन्हें अण्डमान निकोबार की पोर्टब्लेयर स्थित कालापानी की जेल में भेज दिया गया। कालापानी में वीर सावरकर जी को कोल्हू में बैल के स्थान पर जुतना पड़ता था और प्रतिदिन 30 पौंड तेल निकालना पड़ता था। बीच बीच में गर्मी से लोग मूर्छित भी हो जाते थे। ऐसा होने पर कोड़ो से कैदियों की पिटाई होती थी। खाने की स्थिति ऐसी थी कि बाजरे की रोटी व स्वादरहित सब्जी जिसे निगलना मुश्किल होता था। पीने के लिए पर्याप्त पानी भी नहीं मिलता था। दिन में भी शौच आने पर अनुमति नहीं मिलती थी और बात बात पर गांलिया दी जाती थी। ऐसे यातना ग्रह में रहकर एक महान चिन्तक और देशभक्त ने 10 वर्षों तक जीवन व्यतीत किया। कालापानी में वीर सावरकर जी ने जो यातनायें सहन की उसे हमारे सत्ता का सुख भोगने वाले सोच भी नहीं सकते। वीर सावरकर जी का बलिदान किसी भी सत्याग्रही से कहीं अधिक बड़ा बलिदान था, ऐसा हम अनुभव करते हैं। हमने पोर्ट ब्लेयर जाकर कालापानी की उस जेल को देखा है जिसमें सावरकर जी रहे और उन यातनाओं को भी अनुभव किया है जो उनको दी गईं थी। आज भी वह कोल्हू, वहां का फांसी घर जो सावरकर जी के कमरे के सम्मुख था तथा वहां के सभी स्थानों को देखा है। हम चाहेंगे कि सभी देशभक्तों को कालापानी की जेल को देश का प्रमुखतम तीर्थ स्थान मानकर वहां जाना चाहिये और भारतमाता के उन वीर सपूतों को अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिये जहां सावरकरजी सहित अनेक देशभक्तों ने घोर यातनायें सहन की थी। इतना और बता दें कि वहां सायं के समय एक लाइट एण्ड साउण्ड शो होता है जिसे देखकर रोंगटे खडें हो जाते हैं। यह कार्यक्रम देशभक्तों को दी जाने वाली यातनाओं को प्रभावशाली रूप से स्मरण कराने में सक्षम है। प्रत्येक देशभक्त के लिए यह दर्शनीय है। इस लाइट एण्ड साउंड शो को यूट्यूब से डाउनलोड कर भी देखा जा सकता है।
वीर सावरकर जी 10 वर्षों तक कालापानी की जेल में रहे। एक दिन जेल में ही इनकी अपने बड़े भाई श्री गणेश सावरकर जी से भेंट हो गई। जेल के कड़े नियमों के कारण दोनों आपस में बातचीन नहीं कर पाये परन्तु दोनों के बीच एक एक पत्र का आदान प्रदान हुआ जिसमें दोनों ने अपनी संक्षिप्त भावनायें व्यक्त की। सावरकर जी को कविता लिखने का शौक था। इन विपरीत परिस्थितियों में भी आपने कविताओं की रचना की और उन्हें कण्ठाग्र किया। जेल की दीवारों पर भी कील से देश प्रेम की कवितायें लिख डालीं। जेल के अंग्रेज प्रशासन ने जेल के सभी हिन्दू कैदियों को परेशान करने के लिए उन पर मुसलिम संतरी रख दिये और उन्हें भड़़काया कि यह हिन्दू काफिर हैं। यदि वह उनको यातना देंगे तो उन्हें धार्मिक दृष्टि से जन्नत मिलेगी। इसका सन्तरियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। इससे तंग आकर हिन्दू कैदियों ने भी उपाय निकाला। एक बार एक मद्रासी हिन्दू पण्डित को जब एक पठान सन्तरी ने अकारण परेशान किया तो उसने भी यथायोग्य व्यवहार किया और उसकी धुनाई कर दी। इससे प्रसन्न होकर सावरकर जी ने उसको शाबाशी दी। जेल में हिन्दुओं की छुआछूत का भी असर दिखाई देता था। हिन्दू कैदियों के भोजन को मुस्लिम कर्मचारी छू देते थे जिससे अनेक हिन्दू कैदी भूखे ही रहते थे। सावरकर जी ने इसकी युक्ति निकाली और कैदियों को कहा कि शास्त्रों में भ्रष्ट भोजन को शुद्ध करने का विधान है। आप लोग गायत्री मन्त्र पढ़ दिया करें। इससे छूत समाप्त हो जाता है और उस भोजन को ग्रहण किया जा सकता है। सावरकर जी ने सभी कैदियों को जेल में गायत्री मन्त्र भी सिखाया। जेल में अनेक अपराधों के अन्य कैदी भी थे। सावरकर जी ने उन्हें पढ़ाया और शिवाजी और महाराणा प्रताप के देशभक्ति के प्रेरक प्रसंग सुनाकर उन्हें देश भक्ति की भावनाओं से सराबोर कर दिया।
कालापानी से आपकी 10 वर्षों बाद रिहाई हुई। दोनों भाई नाव से भारत पहुंचे। यहा पहुंचते ही आपको पुनः गिरफ्तार कर रत्नागिरी में नजरबन्द कर दिया गया और आप पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये। यहां रहकर आपने अनेक पुस्तकें लिखीं और अपने देश भक्ति के लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजते रहे। आपके छोटे भाई नारायण राव ने आपकी प्रेरणा से एक पत्र ‘श्रद्धानन्द’ का प्रकाशन किया जिसमें सावरकर जी कल्पित नाम से लेख लिखते थे। इन लेखों का देशवासियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। आपकी प्रेरणा से हिन्दू महासभा नामक एक राजनीतिक दल का गठन किया गया जो सशस्त्र क्रान्ति द्वारा देश को आजाद कराने का समर्थक था। इन्हीं दिनों आपका ध्यान ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं का धर्मान्तरित करने की ओर गया। आपने अपने सहयोगियों को प्रेरित किया कि धर्मान्तरित लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में शुद्धि करके शामिल करें। महाराष्ट्र और गोवा आदि में वीर सावरकर जी की प्रेरणा से शुद्धि का कार्य किया गया। आर्यसमाज ने भी उत्तर भारत में ऐसा ही प्रभावशाली कार्य किया। गांधीजी ने इस शुद्धि कार्य का विरोध किया था। दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों की शिकायतों पर अंग्रेज सरकार ने धर्मान्तरित हिन्दुओं की शुद्धि का विरोध किया और सावरकर जी को इसे बन्द करने की हिदायत दी। सावरकर जी का दो टूक जवाब था कि ईसाई मिशनरी पहले हिन्दुओं का धर्मान्तरण बन्द करें।
16 वर्ष तक निरन्तर नजरबन्द रखने के बाद सावरकर जी को रत्नागिरी से मुक्त कर दिया गया। देश भर में सावरकर जी की रिहाई का समाचार फैल गया। रिहाई की खबर सुनकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने इन्हें कांग्रेस का नेतृत्व करने को कहा। आपने दो टूक उत्तर दिया कि वह अहिंसा में विश्वास नहीं रखते। उन्होंने कहा कि वह सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक हैं। सुभाष जी ने भी सावरकर जी के सशस्त्र क्रान्ति के विचारों को स्वीकार कर कांग्रेस से संबंध न रखने का फैसला किया और उन्हें कहा कि वह सशस्त्र क्रान्ति से देश को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न करेंगे। 22 जून 1940 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस मुम्बई जाकर सावरकर जी से उनके घर पर मिले। इस बैठक में सावरकर जी ने सुभाष जी को सुझाव दिया कि आप विदेशों में जाकर वहां रह रहे भारतीयों को संगठित कीजिए। उन्हें देश को स्वतन्त्र कराने के लिए सशस्त्र क्रान्ति का सन्देश दीजिए। आवश्यकता पड़ने पर वह आपके सहायक होंगे। इस प्रस्ताव को स्वीकार कर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अंगे्रजों को चकमा देकर काबुल के रास्ते विदेश चले गये। रूस, जर्मनी व जापान होते हुए वह सिंगापुर पहुंचे और आजाद हिन्द फौज को बनाया। सावरकर जी की पुस्तकों को आपने छपवाकर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों में वितरित किया।
रत्नागिरी से रिहाई के बाद आपने सारे देश का भ्रमण कर आजादी के लिए सशस्त्र क्रान्ति के पक्ष में चेतना उत्पन्न की। उन्हीं दिनों 25 दिसम्बर 1941 को आपने भागलपुर में हिन्दू महासभा के अधिवेशन की घोषणा की। अंग्रेज सरकार इससे घबरा गई और अधिवेशन पर प्रतिबन्ध लगाकर वहां धारा 144 लागू कर दी गई। अधिवेशन के पाण्डाल में पुलिस के द्वारा आग लगा दी गई और सावरकर जी को बिहार स्थित गया में गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर भी सावरकर जी की प्रेरणा से भागलपुर में जलूस निकाला गया। लोकमान्य तिलक के पौत्र श्री केतकर ने वहां श्री सावरकर का भाषण पढ़ा। इस कारण उन्हें सभी समर्थकों सहित हिरासत में ले लिया गया। इसके बावजूद 25 दिसम्बर को ही भागलपुर की सेण्ट्रल जेल में हिन्दू महासभा का अधिवेशन डा. मुजे की अध्यक्षता में हुआ। यह इतिहास की एक अनोखी घटना है। सारा देश यह दृश्य देखकर दंग रह गया। जिन्ना ने पाकिस्तान बनाने की जो योजना अंग्रेंजो के सामने रखी थी उसका भी प्रबल विरोध देश में हुआ।
क्रान्तिकारियों के प्रयासों और आन्दोलनों के प्रभाव से 15 अगस्त 1947 को देश का विभाजन होकर स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। सावरकर जी की चेतावनी के बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और मुसलिग के नेताओं ने देश का विभाजन स्वीकार किया। एक ओर आजादी के नशे में कांग्रेसी नेता दिल्ली की सड़कों पर झूम रहे थे वहीं दूसरी ओर बंगाल और पंजाब में हिन्दुओं के खून की होली खेली जा रही थी। जो हिन्दू और मुसलमान भाई भाई की तरह मिलकर रहते थे, वह अब एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये थे। इससे सावरकरजी का दिल टूट गया। सावरकर जी ने विभाजन के दुःख को भुलाकर देश के शासको को आगाह किया कि देश की सीमाओं पर सेनाओं को नियुक्त करें जिससे पाकिस्तान से सम्भावित आक्रमण होने पर उसका मुकाबला किया जा सकेगा। सावरकर जी के इस सुझाव की हमारे शासकों ने अनदेखी की जिसका परिणाम कुछ महीनों बाद पाकिस्तान के काश्मीर पर आक्रमण के रूप में सामने आया और उसने हमारा बहुत बड़ा भूभाग अपने अधीन कर लिया। इस काश्मीर अतिक्रमण का देश के प्रथम गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और हमारे बहादुर सैनिक पाकिस्तान के घुसपैठियों को करारा जवाब दे रहे थे कि यकायक नेहरू जी ने युद्धविराम की घोषणा कर दी और अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णय लेकर मामले के शान्तिपूर्ण हल के लिए उसे संयुक्त राष्ट्र में ले गये। हमने सन् 1948 से अब तक काश्मीर में अपने हजारों व लाखों सैनिक गंवा दिये व हमारे काश्मीरी हिन्दू भाईयों को वहां से विस्थापित होना पड़ा परन्तु अभी भी हमारे राजनैतिक नेता पाकिस्तान के स्वरूप, स्वभाव व चरित्र को समझे नहीं है। काश्मीर की समस्या के चलते भी भारत की ओर से उसे करोड़ों रूपयों का अनुदान दिया गया। देश के विभाजन और काश्मीर पर पाकिस्तान के कब्जे से वीर सावरकर जी निराश हो चुके थे परन्तु कांग्रेस में आशा की एकमात्र किरण सरदार पटेल थे। उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से भारत में अवस्थित लगभग 600 स्वतन्त्र रियासतों का भारत में विलय कराया जिसमें हैदराबाद की रियासत भी शामिल है जो खुले आम पाकिस्तान में विलय के पक्ष में थी। सरदार पटेल ने रातों रात हैदराबाद में सैनिक कार्यवाही कर वहां के निजाम को गिरफ्तार कर उससे अपनी सभी शर्ते मनवाकर उसका भारत में विलय कराया। अन्य सभी रियासतों के राजाओं से भी भारत में विलय के संधि-पत्रों पर लौह पुरूष सरदार पटेल जी ने हस्ताक्षर कराये। सरदार पटेल के इस दूरदर्शिता एवं शौर्यपूर्ण कार्य के लिए सारा देश व इसकी वर्तमान एवं भावी सन्तानें उनका चिरऋणी रहेगीं।
वीर सावरकर जी ने सरदार पटेल जी की इस सफलता के लिए उन्हें बधाई सन्देश भेजा। 15 दिसम्बर, 1950 को इस युगपुरूष सरदार पटेल का देहावसान हो गया। इस समाचार से सावरकर जी को गहरा धक्का लगा और वह फूट-फूट कर रोये। हमारे शासक दल की अदूरदर्शिता पूर्ण नीतियों का परिणाम सन् 1948 में पाकिस्तान के काश्मीर पर आक्रमण के बाद सन् 1962 में चीन के आक्रमण के रूप में सामने आया। चीन ने हमारी 400 वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया। सावरकर जी को इससे गहरा धक्का लगा और उन्होंने खून के आंसू पीये। सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया परन्तु अब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और हमारी सेनायें भी पूरी तरह से तैयार थी। पंजाब में हमारी सेनायें लाहौर तक और काश्मीर में हाजीपीर दर्रे तक आगे बढ़ गई। सावरकर जी ने लालबहादुर शास्त्री जी को विजय की बधाई दी। परन्तु तभी ताशकन्द समझौता हुआ जिसमें वीर भारतीय सैनिकों का खून बहाकर प्राप्त किया गया समस्त भूभाग पाकिस्तान को लौटाना पड़ गया और लाल बहादुर शास्त्री भी हमसे बिछुड़ गये। इसके पीछे हुए षड़यन्त्र का आज तक पता नहीं चला। क्या कभी इस षड़यन्त्र की जांच होगी? वीर सावरकर जी इस ताशकन्द समझौते से अत्यधिक व्यथित हुए। 26 फरवरी 1966 को भारत माता का यह अन्यतम पुत्र अपने देह को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गया। सावरकर जी का जीवन भारतवासियों के लिए प्रकाश स्तम्भ है। यदि देश उनके बताये हुए मार्ग पर चलेगा तो इससे देश बलवान व अपमानित होने से बचा रहेगा। सावरकर जी पर हिन्दी में पूरी अवधि का चलचित्र भी बना है जिसे प्रत्येक देशभक्त देशवासी को देखना चाहिये। यह पहला चलचित्र है जिसे सावरकर जी के भक्तों से चन्दा एकत्र करके बनाया गया है।
वीर सावरकर जी के 132 वें जन्म दिवस पर उन्हें हमारी कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धांजलि।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , सारा लेख पड़ा और वीर सावरकर जी का बलिदान भारतीओं को हमेशा याद रखना चाहिए . आज उन के जनम दिन पर उन को सच्चे दिल से शर्धान्जली अर्पण करता हूँ . मेरा खियाल है देवी देवताओं की मूर्ति पूजा करने से बिहतर इन शूरवीरों के अस्थानो को देखना चाहिए जिन्होंने देश के लिए इतनी तकलीफें सहीं . सरदार पटेल ने जो काम किया उस का भारत हमेशा रिणी रहेगा .
नमस्ते आदरणीय महोदय जी। लेख पढ़ने एवं प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद। वीर सावरकर जी को याद करने का एक तरीका यह हो सकता है कि हम नियमित स्वाध्याय की आदत डाले और यदा कदा उनका साहित्य पढ़ते रहें। चन्दा इकठा करके उन पर एक प्रभावशाली फिल्म बनी है जो संभवतः यूट्यूब पर उपलब्ध है। उसे भी एक बार देखना चाहिए। आपके व हमारे मन में उनकी इज्जत व श्रद्धा उनको अमर बना रही हैं। वस्तुतः उन्हें हम अमर पुरुष की कोटि में ले सकते हैं। मैं आपके इन विचारों से सहमत हूँ की शहीदों से जुड़े स्थानो को तीर्थ की भांति देखना चाहिए। पत्थर के देवी देवताओं के स्थान पर मन व ह्रदय में ऐसे देशभक्त वीरों को अपने ह्रदय सिंहासन पर विराजमान करना देश के लिए लाभप्रद एवं उचित है। सरदार पटेल का जीवन व कार्य भी ऐसे हैं जिनसे यह सारा देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा और वह अपने अच्छे कार्यों से सदा अमर रहेंगे। यदि कश्मीर का निर्णय उनके हाथ में होता तो शायद आज कश्मीर समस्या न होती। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
शत प्रतिशत सहमत !
हार्दिक धन्यवाद।
बहुत अच्छा लेख ! वीर सावरकर प्रारंभ से ही मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं. स्वामी दयानंद और डॉ हेडगेवार के साथ जिनसे मैं सबसे अधिक प्रभावित हुआ हूँ, वे यही वीर सावरकर जी हैं. इनकी जीवन गाथा का प्रत्येक पृष्ठ प्रेरणादायक है. उनकी स्मृति को कोटि कोटि नमन !
अनुकूल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद। वीर सावरकर जी का जीवन देश भक्त भारतियों के लिए प्रकाश पुञ्ज के समान है। उनको जानने व समझने के लिए उनके आलोचकों को अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ना होगा। दुःख है की हमारे देश में बहुत से लोग उनके प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं। आज भी उनको उचित सम्मान दिए जाने का इंतजार है। उनका जीवन एवं क़ुरबानी राष्ट्रीय आदर्श हैं। देश को उनको उचित सम्मान देना चाहिए। आपकी प्रतिक्रिया के शब्द ग्राह्य एवं स्वीकार्य हैं। बहुत बहुत धन्यवाद।