बेरहम प्रकृति
ओ बेरहम प्रकृति बोलो
क्यों हो इतना नाराज
किस बात का गुस्सा है
जो उगल रहे हो आग
सुनामी तूफान भूकंप से
अभी भरा नहीं है मन
बरसा रहे हो आग ऐसे
साथ में ये गर्म पवन
तड़प तड़प के मर रहे
पशु पक्षी और मानव
सभी हैं बेचैन यहाँ
चारो ओर फैला तांडव
दूभर हो गया है अब
बाहर जाना एक कदम
सहन नहीं होता ये ताप
ऐसे मत बनो बेरहम
अपनी स्वार्थ के लिए हमने
तेरे साथ किया जो गलती
फिर कभी नहीं दोहरायेंगे
अब मान जा ओ प्रकृति
हम मिलके ये वादा करते हैं
अपना हर फर्ज निभायेंगे
शुद्ध रखेंगे अपना वातावरण
बहुत पेड़-पौधे लगायेंगे
– दीपिका कुमारी दीप्ति
जी सर आपने बिल्कुल सही कहा । प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद !
अच्छी कविता. प्रकृति के साथ मनमानी करने से ही ऐसे भयंकर संकट और मौसम सामने आते हैं. इनसे बचने का एक मात्र मार्ग है अधिक से अधिक वृक्ष लगाना. लेकिन अपनी मूर्खता से हम वृक्षों को काटते जा रहे हैं.