कविता

बेरहम प्रकृति

ओ बेरहम प्रकृति बोलो
क्यों हो इतना नाराज
किस बात का गुस्सा है
जो उगल रहे हो आग

सुनामी तूफान भूकंप से
अभी भरा नहीं है मन
बरसा रहे हो आग ऐसे
साथ में ये गर्म पवन

तड़प तड़प के मर रहे
पशु पक्षी और मानव
सभी हैं बेचैन यहाँ
चारो ओर फैला तांडव

दूभर हो गया है अब
बाहर जाना एक कदम
सहन नहीं होता ये ताप
ऐसे मत बनो बेरहम

अपनी स्वार्थ के लिए हमने
तेरे साथ किया जो गलती
फिर कभी नहीं दोहरायेंगे
अब मान जा ओ प्रकृति

हम मिलके ये वादा करते हैं
अपना हर फर्ज निभायेंगे
शुद्ध रखेंगे अपना वातावरण
बहुत पेड़-पौधे लगायेंगे

– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

2 thoughts on “बेरहम प्रकृति

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता. प्रकृति के साथ मनमानी करने से ही ऐसे भयंकर संकट और मौसम सामने आते हैं. इनसे बचने का एक मात्र मार्ग है अधिक से अधिक वृक्ष लगाना. लेकिन अपनी मूर्खता से हम वृक्षों को काटते जा रहे हैं.

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