कविता
काले दिनों में
तुमने आँखें खोली हैं
मेरे बच्चे
अब तो बस तू
नज्मों में ही पढ़ेगा
स्वर्ग से सुंदर धरती की बातें
सच तो यही है कि
तेरी जाई ने भी
कई दिनों से नहीं पढ़ा कुछ
जिंदगी जैसा ….
काले दिनों का
चेहरा ही ऐसा है
जो याद रहेगा जिंदगी भर
किसी अजीज की
बेवफाई सा
क्या कुछ नहीं हो रहा
इन काले दिनों में ….
प्रीत के हुंकारे
भीग गये हैं लहू में
मातम की आमद हुई है
घर घर उग आये हैं कब्रिस्तान
गढ़ गये हैं हर सर पर
पहचान के झंडे
रंगों के साथ
टूट गया है सपनों से
बदनाम हुई हैं
अश्रुओं की रूहपोशी
इन काले दिनों में
मैं जब भी चलती हूँ
सड़क पर
जब भी टेक लगा बैठी हूँ
पेड़ के नीचे
तो मेरी आँखों के सामने आये हैं
सिर्फ किलोमीटर तय करते
सरकारी पुर्जे
या मैंने रुदन सुना है
बदरंग आसमानों का
सरसों के फूलों का
सुनहरी कनकों का
कुलांचे भरते हिरनों का
या सफेद रंगहीन होठों का
काले दिनों का जिक्र मैंने
सांझ ढले ही छेड़ दिया है
मेरे बच्चे
दादी कहती थी
सांझ ढले छिड़ी बात की छाप
मस्तक में कहीं गहरे छप जाती है
जा, आँगन में खेल
अपने खिलौनों के साथ
मैं कोशिश करती हूँ
कोई नज्म लिख सकूं
तारों में हंसते आसमान की
किसी ममता की पहचान सी
दरिया के निष्पाप उछाल सी
और तुम उसको
और भी सांझ ढले
बैठ कर सुन सको
ताकि तुम्हारे जहन में
सुंदर पृथ्वी की
गहरी छाप बन जाए ..!!
……..रितु शर्मा
अच्छी कविता !