कविता

हूक

चीख बाहर नहीं आती
आह!
आह आती है ,
कसक सी उठती हैं
किसी अपरिचित ने
बांह पकड़
झिंझोड़ दिया
मेरा सर्वस्व
और कह रहा हो
कितने डग भर लोगे
मेरे बिन,
टूटी इमारते
मलबे के ढेर
क्या ?
रख पायेगा संभाल
निर्मल पानी
और पानी की
कहानी,
अपार पीड़ा सहने बाद
आक्रोशित धरा
पीर दबाये
देह को
लिए जा रही है
एक नयी भोर की ओर,
सच !
यह सब देख
रोना नहीं आता
रोने की
उठाती है इक हूँक ।

— रितु शर्मा 

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

2 thoughts on “हूक

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    रितु जी , बहुत अच्छी कविता है .

Comments are closed.