हूक
चीख बाहर नहीं आती
आह!
आह आती है ,
कसक सी उठती हैं
किसी अपरिचित ने
बांह पकड़
झिंझोड़ दिया
मेरा सर्वस्व
और कह रहा हो
कितने डग भर लोगे
मेरे बिन,
टूटी इमारते
मलबे के ढेर
क्या ?
रख पायेगा संभाल
निर्मल पानी
और पानी की
कहानी,
अपार पीड़ा सहने बाद
आक्रोशित धरा
पीर दबाये
देह को
लिए जा रही है
एक नयी भोर की ओर,
सच !
यह सब देख
रोना नहीं आता
रोने की
उठाती है इक हूँक ।
— रितु शर्मा
बहुत अच्छी कविता !
रितु जी , बहुत अच्छी कविता है .