चिकित्सा में क्रांति के जनक का अन्त
सुश्रुत और चरक के बाद भारतीय चिकित्सा विज्ञान में नयी क्रांति के प्रणेता और पोषक ऊर्जा विज्ञान के जनक प्रोफेसर शिवाशंकर त्रिवेदी का विगत दिनों वाराणसी में निधन हो गया। प्रचार प्रसार से दूर इनका सारा जीवन एक कर्मयोगी की भांति सतातन आयुर्वेद के लिये पूरी तरह समर्पित था। उन्होंने मनुष्य के लिए असाध्य समझी जाने वाली बीमारियों के अनुसंधान और इलाज के लिए असाधारण काम किया है। इस बात पर उन्होंने गहन चिंतन किया कि आखिर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान कैंसर के इलाज में विफल क्यों हो रहा है। कई वर्षो की जांच पड़ताल के बात उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि औषधीय चिकित्सा की समस्त प्रचलित पद्धतियाँ केवल ड्रगों (विषों-उपविष पदार्थो) से दवाएं तैयार करती हैं, जबकि यह वैज्ञानिक सच्चाई है कि इन ड्रगों को आधार बनाकर आज या भविष्य में कभी भी कैंसर की कोई क्युरेटिव अथवा प्रिवेण्टिव औषधि किसी भी सूरत में तैयार नहीं की जा सकती। यह दुर्भाग्य केवल कैंसर के साथ ही नहीं, सभी रोगों (मानव शरीर संस्थान के सभी रोगों) के साथ है। इसीलिए हालत यह है कि इनमें से कोई भी रोग हो जाने के बाद हर रोगी को जिन्दगी की अन्तिम साँस तक एक कन्धे पर रोग का बोझ और दूसरे कन्धे पर ड्रगौषधियों द्वारा इलाज का बोझ ढोना पड़ता है।
प्रोफेसर त्रिवेदी के अनुसार ये औषधीय ड्रग रोगकारक तथा स्वास्थ्य का हनन करने वाले हैं। रोग से महारोग तक पैदा कर देने में इनकी भूमिका है और प्रत्येक ड्रगौषधि का व्यवहार नये- नये स्वास्थ्य संकटों में उतारता है। कैंसर रोगियों के रोग-लक्षणों की चिकित्सा में भी तीव्र ड्रगौषधियों के प्रयोग से कैंसर बहुत उग्र और आक्रामक होता जाता है, किन्तु कैंसर कोशिकाओं और ट्यूमरों से होने वाले कष्टों के तत्कालिक शमन के के लिए इन्हें स्वीकार करना पड़ता है। पर कैंसर चिकित्सा में सर्वत्र अंधकार और सन्नाटा है। यह तथ्य है कि जब तक ड्रगों पर निर्भरता बनी रहेगी, कैंसर अथवा अन्य रोगों के क्योर के लिए इंसानी जिंदगियां छटपटाती रहेंगी। कैंसर के रोगी की जीवनी शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी होती है कि उसे कोई भी ड्रग औषधि देने का अर्थ होगा कि उसके जीवन को और खतरे में डाल देना। इसलिए पूरी दुनिया में यह सख्त निर्देश लागू कर दिया गया है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी ड्रगों से निर्मित दवाओं के इस्तेमाल से कैंसर अथवा मानव संस्थान के अन्य किसी भी रोग के लिए भी क्युरेटिव अथवा प्रिवेण्टिव तैयार कर लेने की चर्चा भी नहीं कर सकता है।
चिकित्सा विज्ञान तथा चिकित्सा वैज्ञानिकों की बेबसी की यही तस्वीर देखकर उन्होंने स्वयं को उस ‘क्यूरेटिव एरा’ की तलाश के लिए अर्पित कर दिया, जो वह विज्ञान सामने लायेगी, जो रोगों से स्थायी छुटकारे के लिए निरापद औषधियां दे सकेगा। उन्होंने सन् 1965 में बिहार के पूर्णिया जिले के तराई क्षेत्र में अपने बड़े भाई डा. उमाशंकर तिवारी के निर्देशन में अपने घर पर ही डी.एस. रिसर्च सेंटर की स्थापना की। इस प्रकार घर में प्रयोगशाला और प्रयोगशाला में घर हो गया। के साथ- साथ त्रिवेदी बन्धुओं ने इस बात का गहन अध्ययन और अनुसंधान किया कि मानव जीवन की शक्ति का स्रोत क्या है? प्रकृति और जीवों के गहन अध्ययन के बाद उन्हें पता चला कि हमारे जीवन का स्रोत समस्त खाद्य पदार्थ हैं। जब कोई रोगी होता ही तब है, जब उसकी चय-अपचय प्रणाली (मेटाबोलिज्म) में किसी प्रकार का विचलन आ जाता है। रोगी तो चयोपचय है। वह स्वयं ही विचलित है। वह विचलित पोषक ऊर्जा ग्रहण करता है। उस चयोपचयी की चिकित्सा कैसे होगी? प्रकृति ने चयोपचय के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग और साधन नहीं दिया है। त्रिवेदी बन्धुओं के सामने यह एक चुनौती आयी और सारा बौद्धिक अभियान जैसे अपनी जगह पर ही ठिठक गया। लगा कि अब आगे रास्ता बन्द है। लगा कि अवधारणाएं उसी प्रकार बंद हो जायेंगी, जैसे दार्शनिक विचार और कल्पना-केन्द्रित कविताएँ। ये विचार, जो सुन्दर और लुभावने हो सकते हैं, किन्तु जीवन उन पर पाॅव रखकर खड़ा नहीं हो सकता। गणित का यह समीकरण जो सोलह आने सही और सवा सोलह आने अव्यावहारिक है। किन्तु डीएस रिसर्च सेन्टर के वैज्ञानिकों का संकल्प बोल उठा कि प्रकृति में कहीं न कहीं कोई मार्ग अवश्य होगा। सृष्टि के विराट आयोजन में संभावनाओं के आयोजन अवश्य होंगे। कमर कसी जाय और चला जाय प्रकृति के सृजन केन्द्र पर। फिर बैठें उस बिन्दु पर, जहाॅ अचेतन केमेस्ट्रिी सचेतन होती है। जहाँ चयोपचय की अदृश्य चेतना-प्रतीक्षा में खड़ी रहती है। सृष्टि की प्रयोगशाला उत्तर और दिशा अवश्य देगी।
प्रोफेसर त्रिवेदी ने कठिन परिश्रम और शोध के बाद उस विधि का विकास कच्चे-पक्के रूप में पूरा कर लिया, जिससे भोज्य पोषकों में सन्निहित पोषक ऊर्जा को प्रायः उसी रूप में चयोपचय प्राप्त करता है। एक दो चार पचास, सौ और उससे भी अधिक प्रयोग किये गये। हर प्रयोग एक कमी का अहसास करा देता अर्थात उस कमी अथवा कमजोरी को दूर कर लेने की हिदायत दे देता। अन्ततः एक लाइन मिली और पोषक ऊर्जा वर्ग की औषधियाँ प्रभावी ढंग से कार्य करने लगीं। भोज्यों के विभिन्न वर्गो से औषधियाँ विकसित करने और उन्हें परीक्षा में उतारने का कार्य चल पड़ा। अन्ततः 1621 भोज्य पदार्थो से प्राप्त पोषक ऊर्जा ने उम्मीदों की नयी रोशनी पैदा कर दी। वे सन् 1978 में पोषक ऊर्जा विज्ञान तक पहुॅचे और मानव की प्राकृतिक आहार सामग्रियों से प्राप्त पोषक ऊर्जा के आधार पर कई असाध्य रोगों की उन्मूलक औषधियों का अनुसंधान-परीक्षण किया। सन् 1982 में कैंसर से उन्होंने होने वाली मौतों को चुनौती दी और वे विश्वास के साथ पोषक ऊर्जा में कैंसर का समाधान तलाशने लगे।
इस तरह से त्रिवेदी बंधुओं ने कैंसर को वैज्ञानिक रूप से समझा और परिभाषित किया। फिर 1983 में पोषक ऊर्जा से ‘सर्वपिष्टी’ नामक कैंसर क्युरेटिव का आविष्कार किया। इस औषधि के परीक्षण के लिए प्रारम्भ से ही नीति बनी कि केवल ऐसे रोगियों की तलाश की जाए जिन्हें अस्पताली चिकित्सा के धर्मकांटे ने चिकित्सा के सभी उपाय अपनाने के बाद उन्हें मरणासन्न अवस्था में छोड़ दिया हो। खोजबीन करके इस तरह के रोगियों तक पोषक ऊर्जा की खुराकें पहुॅचायी जाने लगी। उन्हें यह भी कह दिया गया कि अपने कष्टों के लिए और स्वास्थ्य के विकास के लिए जो भी औषधियां वे लेते रहे हैं उन्हें लेते रहें। सेंटर के वैज्ञानिक डा. उमाशंकर तिवारी के निर्देशन में परीक्षण अभियान शुरू हुआ। अन्ततः औषधि की सफलता और उसके प्रभाव-परिणाम की सकारात्मकता, रोगियों के अपने अनुभवों तक सीमित नहीं रही, वह जांच रिपोर्टो से भी प्रमाणित हुई और पारम्परिक चिकित्सा के वर्तमान सूत्रधारों को अक्सर विस्मित भी करती रही। अब तक वैसी ही हालत वाले कैंसर रोगियों में से हजारों लोग कैंसर मुक्त स्वस्थ जिन्दगी पा चुके हैं।
इन परिणामों ने प्रमाणित कर दिया है कि उनकी कैंसर की परिभाषा भी वैज्ञानिक है और चिकित्सा का विज्ञान भी समर्थ है। इस प्रकार सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने वह कार्य किया जो हमारे बड़े-बड़े चिकित्सा संस्थान भी नहींे कर सके। प्रोफेसर त्रिवेदी का जन्म सन 1925 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के द्वाबा क्षेत्र के दुर्जनपुर गांव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा बलिया से प्राप्त करने के उपरान्त वे राजस्थान चले गये। जहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे पिलानी और सरदार शहर में अध्यापन का कार्य करने लगे। अपने छोटे भाई दयाशंकर तिवारी की कैंसर से मौत के बाद उन्होंने कैंसर की क्युरेटिव औषधि के आविष्कार के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। अपनी अन्तिम संास तक वे कैंसर रोगियों के लिए सस्ती औषधि देने पर ही काम करते रहे। उनका निधन 26 अप्रैल 2015 को वाराणसी के डीएस रिसर्च सेंटर में हुआ। डीएस रिसर्च सेंटर के प्रबन्ध निदेशक अशोक त्रिवेदी ने बताया कि अपनी म्ृत्यु से एक दिन पहले तक उन्होंने बातचीत की थी। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि उन्हें वह ख्याति और यश नहीं प्राप्त हुआ जिसके वे हकदार थे। उन्होंने जिस पोषक ऊर्जा विज्ञान की नींव रखी है उसमें मानव मंगल की विराट संभावनाएं छिपी है।
निरंकार सिंह
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(लेखक हिन्दी विश्वकोष के सहायक संपादक रह चुके हैं। आज कल स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य कर रहे हैं।)
केंसर की चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ त्रिवेदी के कार्य बहुत प्रशंसनीय हैं. उनको विनम्र श्रृद्धांजलि !