कविता

मेहंदी और नारी

मेहंदी नारियों की प्रिय श्रृंगार होती है,
दोनों का जीवन एक ही समान होती है।

हर जगह दोनों तोड़ी-पीसी जाती है,
खुद लूटकर औरों को रंगीन बनाती है।

दुसरे के हाथों अपनी जीवन वार देती है,
अपनी खुशियों को खुशी से अर्पण करती है।

अपनी खुशबू से दुनिया को महकाती है,
लाख सितम सहकर दुसरों को हँसाती है।

बाँटने वालों को भी ये खुशी का रंग देती है,
फिर भी दुनिया हर कदम पर परीक्षा लेती है।

गैरों को सजाने के लिए खुद बिखर जाती है,
कोई नहीं पूछता जब इनकी रंगत उतर जाती है।

– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

One thought on “मेहंदी और नारी

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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