कुछ मुक्तक
सहरा ए दिल से नदी कोई निकल न जाये
न मिलाओ तुम निगाहें कहीं दिल मचल न जाये
इतना न नाज दिखा इस इंतजार को तू
तिरे आने तक कहीं मौसम बदल न जाये
मिरी ग़जलों में तिरी याद की बहर क्यों है।
हर तरफ तेरा ही जलवा तिरा असर क्यों है।
रात के माथे पे क्यों अक्स उभरते हैं तिरे,
तिरे ही रूप में ढलती सी हर सहर क्यों है।
सुलगता देख हर मंज़र,चमन ये काँप जाता है
तजुरबे का तराजू हर इक शै को नाप जाता है
छुपाये लाख बातें वो, कि फिर चाहे पर्दे डाले
गर अनबन हो बेटों बीच,वालिद भांप जाता है
इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा।
सबको समय ने अपनी ज़द में फंसा के मारा।
आँखें हैं पानी पानी ,दिल भी धुआँ धुआँ है,
मन की तपिश ने हमको कैसे जला के मारा।
बुलबुला साँसों का कब जगती लहर पर ठहरता है
इस मेले में बसने की आरजू भला क्यों करता है
सिर्फ़ त्याग और नेकियाँ ही मुक्ति का मार्ग है बंदे
दुनिया का दस्तूर यही जो करता है सो भरता है
— आशा पाण्डेय ओझा
बहुत अच्छे मुक्तक !
सुन्दर !
बहुत खूब .