माँ— ‘निरुत्तर’
साँझ थी होने को आई,
शाम की हवा की ये हिलोरें
अन्त:स्थ के स्पंदन के वेग को
कुछ बढ़ाने लगी,
कुछ उमंगे जगाने लगी,
हौले-हौले पदचाप करते-करते
उस पीपल के पेड़ से कुछ दूरी तक
मैं आ गया था,
हाँ, वो फुटपाथ आ गया था—
उस पीपल के नीचे मैं था रहता खड़ा हमेशा,
आज एक युवती खड़ी थी..!
कुछ दूर से मैं देख रहा
उसको निरंतर,
उसकी भी एक नज़र मुझ पर पड़ी थी..!
वो देख मुझको मुस्कुराई,
उसी दूरी से मैं देख रहा
उसको निरंतर,
वो देखती और मुस्कुराती,
एकाएक मेरे कदम बढ़ने लगे
उसकी ओर,
हाँ, वो मुझे ही देख रही थी..!
पर साँझ का अँधेरा कुछ
हो रहा था और गहन,
इधर-उधर देखकर
मुझको देखती-सी,
वो घुप्प-से अँधियारे के
गलियारे में
जाने लगी,
मुझसे अकेले में
बतियाने का ये एक इशारा था..!
मुझको धीरे-से देखकर
शायद मेरे लिए सोचती-सी,
अपने कदम बढ़ाने लगी..!
पर रात्रि का पहर भी अपने कदम
बढ़ा रहा था हमारी ओर,
कुछ देर तो मैं रुका…..
फिर कुछ सोचकर कि कौन है वो?
चल दिया उसके नक्शे कदम पर,
हाँ, अब वो दूर नहीं थी ज्यादा मुझसे
उसकी गोद में नवजात दिखा था मुझको,
कुछ ठनक गया मैं,
वो किसका है?
क्या उसी का है?
मन में कसक-सी उठने लगी,
पर मैं इतना आगे बढ़ गया था कि—
नहीं जा सकता था,
वापस लौटकर
बिना पूछे..!
अन्तर कुछ उद्यत हुआ सोचने को
पर आ गया वो चौबारा,
जिसमें वो चढ़ने लगी सीढ़ियाँ,
अपने मकान की..
साथ के टूटने का एहसास होने लगा था
दरवाजे की कुंदी उसने खोली तो—
सहसा,
निकल पड़ा उद्गार मुखाविलम्ब से..
कौन हो तुम?
क्यूं देख रही थी मुझको?
क्या, क्यूं, कौन की बौछारें
करने लग गया था मैं ऊपर,
उसके..!
वो सहमी,
शरमाई,
मुस्कुराकर,
नवजात का मुखौटा हटाकर,
मेरी तरफ नज़रे उठाकर,
बच्चे को देखकर
मेरी तरफ देखती-सी
आँखों में कुछ सपने तिराकर
कहने लगी—”मैं आपको कहाँ,
अपने बच्चे को देख रही थी,
यह भी कभी आपकी तरह जवान होगा…”
दरवाजा बंद हो गया,
स्पंदन भी ढीला पड़ गया,
अचानक फिर स्पंदन बढ़ने लगा,
भीतर से कुछ कहने लगा,
हाँ, मैं पीछा कर रहा था जिसका,
वो तो मेरी माँ थी,
मैं अपनी माँ का पीछा कर रहा था,
हल्के से भीतर की भी इन स्पंदनों को
प्रत्युत्तर में हाँ थी,
कदम वापस चल पड़े
उस पीपल के पेड़ की ओर,
यही होता है
शायद,
निरुत्तर…!
Bahut khoob ji
Thanks कामनीजी
बहुत सुंदर !
धन्यवाद बड़े भाई साहब