लघुकथा

लघुकथा : भोग

“आ ठकुराइन … आ बैठ।” मंदिर के पुजारी पंडित राम आसरे ने अपने सामने बड़े आदर-सत्कार के साथ बूढी ठकुराइन को बिठाया और शाम के समय ईश्वर को चढ़ाया जाने वाला प्रसाद, ठकुराइन के सामने परोस दिया।

“भोजन ग्रहण करो ठकुराइन … राधा बिटिया ने बड़े मन से बनाया है।” पुजारी जी ने आग्रह किया और ठकुराइन की आँखें छलछला आईं। यह देखकर पुजारी जी की बिटिया राधा क्रोधित हो गई लेकिन चुपचाप रही।

“राधा ज़रा लौटे में जल तो भर ला बेटी।” पंडित जी ने बिटिया को आदेश दिया।

भोजन के उपरान्त लाख-लाख आशीष देकर ठकुराइन लाठी टेकती हुई वहां से चली गई। मंदिर की सीढियाँ उतरने में पुजारी जी ने भी ठकुराइन की सहायता की।

जब पुजारी जी मंदिर में वापिस लौटे तो बिटिया को क्रोधित अवस्था में देखकर चौंके।

“बाबा आपने ऐसा क्यों किया? मैंने बड़े जतन से ठाकुर जी के लिए प्रसाद बनाया था और आपने ठकुराइन को खिला दिया,” राधा के स्वर में खिन्नता झलक आई।

“बिटिया तुम्हारा क्रोध करना उचित है। तुम तो जानती ही हो कि दो महीने पहले जब ठाकुर साहब का निधन हुआ था तो ठकुराइन के दोनों निकम्मे बेटों धीरू और वीरू ने सारे सामान और सम्पति के साथ-साथ माँ का भी बंटवारा कर दिया। यह तय किया कि एक-एक दिन छोड़कर दोनों माँ को भोजन देंगे। इस तरह आधे महीने एक बेटा भोजन देगा तो आधे महीने दूसरा। वीरू परसों अपनी पत्नी के साथ साले की शादी करने हेतु ससुराल चला गया। चौधरी को यह कहकर कि दो दिन में वीरू अपने ससुराल से लौट आएगा। इस बीच एक दिन का भोजन तो चौधरी ने करवा दिया। अगले दिन धीरू ने भी अपने हिस्से का भोजन ठकुराइन को करवा दिया मगर वीरू आज भी अपने ससुराल से नहीं लौटा है। इसलिए ठकुराइन सुबह से भूखी-प्यासी बैठी थी। आज किसी ने भी ठकुराइन को भोजन के लिए नहीं पूछा। रास्ते में अचानक मेरी भेंट ठकुराइन से हुई तो सारी बात का पता चला। ठकुराइन ने बड़ी व्याकुलता से कहा था–पंडित जी सांझ होने को आई है और मैं सुबह से भूखी हूँ।” इतनी कहानी कहने के उपरांत पंडित जी ने राधा से ही प्रश्न किया, “अब तू ही फैसला कर बेटी … गांव का एक व्यक्ति सुबह से भूखा है और हम भोजन कर रहे हैं तो हमसे बड़ा नीच कौन होगा? पत्थर के ठाकुरजी तो एक वक़्त का उपवास सह सकते हैं लेकिन हाड-मांस की ठकुराइन वृद्धावस्था में पूरे एक दिन भूख कैसे बर्दाशत करेगी?” कहते-कहते पुजारी जी की आँखें भर आईं, “बेटी, सही अर्थों में मेरी जीवन भर की पूजा-अर्चना आज सफ़ल हुई है।”

“बाबा …” राधा की आँखों में आंसू थे और अपने पिता के लिए गर्व भी।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

One thought on “लघुकथा : भोग

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर लघुकथा !

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