विश्व में भारत की पहचान – संस्कृत एवं हिन्दी
ओ३म्
हमारे देश की वास्तविक पहचान क्या है? विचार करने का हमें इसका एक यह उत्तर मिलता है कि संसार की प्राचीनतम भाषा संस्कृत व आधुनिक भारत की सबसे अधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा आर्यभाषा-हिन्दी है। हिन्दी को एक प्रकार से संस्कृत की पुत्री कह सकते हैं। इसका कारण हिन्दी में संस्कृत के अधिकांश शब्दों का प्रयोग किया जाना तथा इस भाषा का देश व संसार में सबसे सरल होना व पूरे देश में इसका बोला व समझा जाना है। यह दोनों ही भाषायें हमारे देश की आत्मा व अस्मिता होने के साथ विश्व के अन्य देशों में हमारे देश की पहचान भी हैं। जिस प्रकार से हम पूर्व मिले हुए वा देखे हुए व्यक्तियों को उनके अनेक लक्षणों से पहचान लेते हैं उसी प्रकार से संसार में लोग हमारी इन दोनों भाषाओ को सुनकर अनुमान लगा लेते हैं कि इन भाषाओं को बोलने वाला व्यक्ति भारतीय है। संस्कृत कोई साधारण व सामान्य भाषा नहीं है। यह वह भाषा है जो हमें ईश्वर से सृष्टि के आरम्भ में परस्पर व्यवहार करने के लिए मिली थी। यह एक ऐसी भाषा है जिसे मनुष्य स्वयं निर्मित नहीं कर सकते थे। इसमें अनेक विशेषतायें हैं जो संसार की अन्य भाषाओं में नहीं है। पहली बात तो यह है कि यह भाषा सबसे अधिक प्राचीन है। दूसरी संस्कृत की एक विशेषता यह भी है कि यह संसार की सभी भाषाओं की जननी अर्थात् सभी भाषाओं की मां या दादी मां है। संसार की सारी भाषायें संस्कृत से ही उत्पन्न होकर अस्तित्व में आईं हैं। संसार की प्राचीनतम् पुस्तकें चार वेद यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अर्थववेद इस संस्कृत भाषा में ही हैं जो विश्व की सभी भाषाओं व ज्ञान व विज्ञान का आधार होने के साथ सत्य व यथार्थ ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान के भण्डार हैं। वेदों के समकालीन व पूर्व का कोई ग्रन्थ संस्कृत से इतर संसार की किसी अन्य भाषा में नहीं है। इस तथ्य व यथार्थ स्थिति को विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। संस्कृत भाषा संसार में सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा है। इसमें मनुष्यों के मुख से उच्चारित होने वाली सभी ध्वनियों को स्वरों व व्यंजनों के द्वारा देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध किया जा सकता है तथा उसे शुद्ध रूप से उच्चारित किया जा सकता है। संस्कृत व हिन्दी भाषाओं की वर्णमाला एक है और यह संसार में अक्षर, एक-एक ध्वनि व शब्दोच्चार की सर्वोत्तम वर्णमाला है। संसार की अन्य भाषाओं में यह गुण विद्यमान नहीं है कि उनके द्वारा सभी ध्वनियों का पृथक-पृथक उच्चारण किया जा सके। इ़स कारण से संस्कृत संसार की सभी भाषाओं में शीर्ष स्थान पर है। संस्कृत भाषा में प्राचीनतम् ग्रन्थ वेद संहिताये तो हैं ही, इनके अतिरिक्त चार उपवेद क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थवेद/शिल्पवेद, चार प्राचीन ब्राहमण ग्रन्थ क्रमशः ऐतरेय, शतपथ, साम व गोपथ तथा 6 वेदांग क्रमशः शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दः और ज्योतिष भी वैदिक संस्कृत व वेदार्थ के ज्ञान में सहायक ग्रन्थ हैं। छः दर्शन जो वेदों के उपांग कहे जाते हैं वह हैं योग, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, वेदान्त और मीमांसा, यह सभी संस्कृत में ही हैं। इनके अतिरिक्त 11 उपनिषद् ग्रन्थ, मनुस्मृति, रामायण व महाभारत एवं 8 आरण्यक ग्रन्थ आदि विशाल साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है जो आज से हजारों व लाखों वर्ष पूर्व लिखा गया था। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त भी देश विदेश के पुस्तकालयों में संस्कृत भाषा में लिखित हजारों वा लाखों पाण्डुलिपियां विद्यमान है जिनका अध्ययन व मूल्याकंन किया जाना है। आज भारत में अनेक भाषायें व बोलियां प्रयोग में लाई जाती हैं। परन्तु महाभारत काल व उसके कई सौ व हजार वर्षों तक संस्कृत ही एकमात्र भाषा बोलचाल व परस्पर व्यवहार की भाषा थी। जब इस तथ्य पर विचार करते हैं तो हमें आश्चर्य होता है।
आज संस्कृत को कठिन भाषा माना जाता है परन्तु सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और उसके सैकड़ों व हजारों वर्षों तक संस्कृत भाषा का संसार पर वर्चस्व रहा है। कारण खोजते हैं तो वह हमारे ऋषियों के कारण था जो हर बात का ध्यान रखते थे और पुरूषार्थ करते थे। उन दिनों राजा भी वैदिक धर्म व संस्कृत के प्रेमी व ऋषियों के आज्ञाकारी होते थे। ऋषियों और महाभारत काल तक के चक्रवत्र्ती आर्य राजाओं के कारण लगभग 2 अरब वर्ष से कुछ कम अवधि तक सारे संसार पर संस्कृत ने अपने सदगुणों के कारण राज्य किया है और सबका दिल जीता है। यह भाषा न केवल भारतीयों व उनके पूर्वजों की भाषा रही है अपितु विश्व के सभी लोगों के पूर्वजों की भाषा रही है जिसका कारण यह है कि प्राचीन काल में तिब्बत में ईश्वर ने प्रथम व आदि मनुष्यों की सृष्टि की थी। वहां धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि होने व सुख समृद्धि होने पर लोग चारों दिशाओं में जाकर बसने लगे। वर्णन मिलता है कि उनके पास अपने विमान होते थे। वह अपने परिवार व मित्रों सहित सारे संसार का भ्रमण करते थे और जो स्थान उन्हें जलवायु व अन्य कारणों से पसन्द आता था वहां अपने परिवार व इष्टमित्रों को ले जाकर बस्ती बसा देते थे। अपने मूल देश भारत वा आर्यावत्र्त में भी उनका आना जाना होता रहता था। आज हमारे देशवासियों व विदेशियों को यह वर्णन काल्पनिक लग सकता है परन्तु यह वास्तविकता है कि हमारे पूर्वज वेदज्ञान व विज्ञान से पूर्णतः परिचित थे व उसका आवश्यकतानुसार उपयोग करते थे। इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। हां, यह भी सत्य है कि महाभारत काल से कुछ समय पूर्व पतन होना आरम्भ हुआ जो महाभारत काल के बाद बहुत तेजी से हुआ और हमारा समस्त ज्ञान-विज्ञान, हमारे तत्कालीन पूर्वजों के आलस्य प्रमाद व हमारे पण्डितों व पुजारियों की अकर्मण्यता व अध्ययन व अध्यापन आदि सभी अधिकार स्वयं में निहित कर लेने व दूसरों को इससे वंंिचत कर देने से नष्ट होकर सारा देश अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों से ग्रसित हो गया। हम संस्कृत की महत्ता की चर्चा कर रहे थे तो यह भी बता देते हैं कि वैदिक संस्कृत के ज्ञान के लिए अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरूक्त व निघण्टु आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने व इससे व्याकरण का ज्ञान हो जाने पर संस्कृत के सभी ग्रन्थों को पढ़ा वा समझा जा सकता है। संस्कृत के व्याकरण जैसा व्याकरण संसार की किसी भी भाषा में नहीं है। यह अपूर्व विद्या है जिसकी रचना साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने की है। आज विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्यापन होता है। उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मनी व इंग्लैण्ड आदि देशों के अनेक विद्वानों ने संस्कृत पढ़ी थी और वेदों पर कार्य किया। वेदों को सुरक्षित रखने में भी प्रो. मैक्समूलर जैसे कई विद्वानों का योगदान है।
अब आर्य भाषा हिन्दी की चर्चा करते हैं। हिन्दी को संसार की सबसे सरलतम् भाषाओं में से एक भाषा कह सकते हैं। हिन्दी का संस्कृत से माता व पुत्री का सम्बन्ध है। हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत भाषा साहित्य से आये हैं। हिन्दी में अपने भावों को बहुत ही सरलता व सहजता से व्यक्त किया जा सकता है। हिन्दी का पद्य व गद्य साहित्य भी अत्यन्त विशाल है। अनेक कवियों एवं गद्य लेखकों ने हिन्दी को सजाया व संवारा है। महर्षि दयानन्द का भी हिन्दी के स्वरूप के निर्धारण, इसे सजाने-संवारने व प्रचार प्रसार करने में प्रमुख योगदान है। उन्होंने इतिहास में पहली बार हिन्दी को अध्यात्म की व धर्मशास्त्रों की भाषा बनाया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब हिन्दी का स्वरूप भी ठीक से निर्धारित नहीं हुआ था, संस्कृत के अद्वितीय विद्वान होने व उस पर पूरा अधिकार होने पर भी महर्षि दयानन्द जी ने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए हिन्दी को अपनाया और सत्यार्थप्रकाश जैसे विश्व इतिहास में सर्वोत्तम धर्म ग्रन्थ की हिन्दी में रचना कर ऐतिहासिक कार्य किया जिसके लिए हिन्दी जगत सदैव उनका ऋणी रहेगा। उन्होंने एक स्थान पर लिखा भी है कि उन्होंने देश भर में भाषाई एकता की स्थापना के लिए हिन्दी को चुना और कि उनकी आंखें वह दिन देखना चाहती हैं कि जब हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक देवनागरी अक्षरों का प्रचार हो। आज यह हिन्दी भारत की राष्ट्र व राज भाषा दोनो ही है। हिन्दी का सर्वाधिक महत्व इसकी जन्मदात्री संस्कृत का होना है। इसी से यह इतनी महिमा को प्राप्त हुई है। लार्ड मैकाले ने संस्कृत व सभी भारतीय भाषाओं को समाप्त कर अंग्रेजी को स्थापित करने का स्वप्न देखा था। हमारे देश के बहुत से लोगों ने उनको अपना आदर्श भी बनाया और आज भी वही उनके आदर्श हैं, परन्तु वह अपने उद्देश्य में कृतकार्य नहीं हो सके। ऐसा होने के पीछे कुछ दैवी शक्ति भी अपना कार्य करती हुई दिखाई देती है। आज हिन्दी में विश्व में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। अनेक हिन्दी के चैनलों का पूरे विश्व में प्रसारण होता है। हम विगत 40-50 वर्षों से बीबीसी, वाइस आफ अमेरिका, रेडियो बीजिंग व सोवियत रूस से हिन्दी के प्रसारण सुनते चले आ रहे हैं। इस दृष्टि से हिन्दी का पूरे विश्व पर प्रभाव है। यदि हम अपने पड़ोसी देशों चीन, श्रीलंका, पाकिस्तान, बर्म्मा, भूटान व नेपाल आदि पर दृष्टि डाले तो हम पाते हैं कि इन सभी देशों में अपनी-अपनी भाषायें एवं बोलियां हैं परन्तु इनमें जनसंख्या की दृष्टि से यदि किसी भाषा का सबसे अधिक प्रभाव है तो वह प्रथम वा द्वितीय स्थान पर हिन्दी का ही है। चीनी भाषा चीन की जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दी के समान व इससे कुछ अधिक बोली जाती है, ऐसा अनुमान है। अतः यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि संस्कृत की तरह आर्यभाषा हिन्दी भी भारत की विश्व में पहचान है।
लेख को समाप्त करने से पूर्व हम यह भी कहना चाहते हैं कि चार वेद एवं प्राचीन आश्रम शिक्षा पद्धति पर आधारित हमारे गुरूकुल भी भारत की विश्व में पहचान हैं। योग दर्शन व योग भी वेद का एक उपांग है और इस विषय का प्राचीनतम ग्रन्थ हजारों वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने लिखा था। वेद संसार का सबसे प्राचीनतन व ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान के यथार्थ ज्ञान का ईश्वरीय प्रेरणा से उत्पन्न धर्म ग्रन्थ है। गुरूकुल संसार की सबसे प्राचीन शिक्षा पद्धति होने व वर्तमान में भी देश भर में प्रचलित होने के कारण आज भी जीवन्त है। लार्ड मैकाले द्वारा पोषित अंग्रेजी शिक्षा से पोषित स्कूलों के होते हुए भी देश भर में गुरूकुल शिक्षा प्रणाली से पोषित सैकड़ों गुरूकुल चल रहे हैं जहां ब्रह्मचारी अर्थात् विद्यार्थी अंग्रेजी व हिन्दी नहीं अपितु संस्कृत में वार्तालाप करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि संस्कृत कोई मृत व अव्यवहारिक भाषा नहीं अपितु जाती जागती व्यवहारिक भाषा है। गुरूकुल शिक्षा पद्धति का अनुकरण व अनुसरण कर ही संसार में आवासीय प्रणाली के स्कूल स्थापित किये गये हैं जिन्हें आज अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। मर्यादापुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्रीकृष्ण व वेदाद्धारक और समाजसुधारक महर्षि दयानन्द इसी शिक्षा पद्धति की देन थे। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अपने जन्म काल से आज तक एक भी राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, शंकर, युधिष्ठिर व अर्जुन नहीं दे सकी। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश सम्पोषित गुरूकुल पद्धति का भविष्य उज्जवल है। आने वाले समय में सारा संसार इसे अपनायेगा। यह वेद और गुरूकुल भी भारत की पहचान है। इसी कारण इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री रहे रैम्जे मैकडानल गुरूकुल का भ्रमण करने आये थे और यहां से लौटकर उन्होंने गुरूकुल की प्रशंसा करने के साथ गुरूकुल के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द को जीवित ईसामसीह तथा सेंट पीटर की उपमा से नवाजा था। संस्कृत, हिन्दी, वेद, गुरूकुल व योग के प्रचार में स्वामी रामदेव व उनके आस्था आदि चैनलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यह भी देश का सौभाग्य है कि इसे वर्तमान में एक हिन्दी प्रेमी प्रधानमंत्री मिला है जिसने विश्व में हिन्दी व भारत का गौरव बढ़ाया है। अन्त में हम यही कहना चाहते हैं कि विश्व में भारत की पहचान के मुख्य कारक हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत व हिन्दी दोनों हैं। इन्हीं पंक्तियों के इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख. मैं इसमें व्यक्त विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ. वर्तमान में हिन्दी संसार भर में हमारी पहचान बन गयी है. लेकिन वास्तव में हमारी पहचान संस्कृत से है और होनी चाहिए. राजनैतिक कारणों से पहले की सरकारों ने संस्कृत की पढ़ाई को उपेक्षित किया और अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया, यही हमारे देश के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है. मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सभी स्तरों पर अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करके संस्कृत, हिंदी और मातृभाषा (या कोई अन्य भारतीय भाषा) की पढ़ाई अनिवार्य की जानी चाहिए.
नमस्ते एवं लेख पसंद आने के लिए धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। देश में संस्कृत को उसका उचित स्थान नहीं मिल रहा है। अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होनी चाहिए और संस्कृत व हिंदी को उचित प्रोत्साहन मिलना चाहिए। संस्कृत को राष्ट्रीय धरोहर की भांति विशेष दर्जा मिलना चाहिए। केंद्रीय सरकार को नए सिरे से संस्कृत व हिंदी के प्रति नीति बनाकर इन्हे न्याय देना चाहिए। इससे भारत मजबूत होगा और राष्ट्र हित को बढ़ावा मिलेगा। आपके विचार स्तुत्य एवं प्रेरणादायक हैं। आपका अभिनन्दन है. हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा . देश के सभी प्रान्तों में हिंदी जरुरी विषय होना चाहिए , इस से देश में एकता होगी और एक दुसरे प्रान्त में जा कर लोगों से बात चीत करना आसान होगा , जैसे अंग्रेजी दुनीआं के हर देश में बोली जाने के कारण कमिऊनिकेशन आसान हो गिया है इसी तरह हमारे देश में हिंदी कॉमन ज़ुबान होनी चाहिए .
नमस्ते श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचार उत्तम एवं श्रेष्ठ हैं। हमारे पूर्वजो ने हिंदी का जो स्वरुप सजाया व संवारा है उसमे उनके प्रयत्न और हिंदी की अपनी आंतरिक शक्ति भी इसके राष्ट्र भाषा बनने में कारण रही है। हिंदी के अनेक प्रांतों में बोले जाने, इसके साहित्य और इसकी अपनी अन्तर्निहित क्षमता के कारण ही देश की आजादी के बाद इसे राजभाषा के गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया। आज भी बहुत से राजनैतिक एवं गैरराजनीतिक लोग अंग्रेजी के हिमायती और दिल से हिंदी के विरोधी है। कुछ दल के बड़े नेता भी हिंदी विरोधी है. आपने जो लिखा है, वह स्वप्न एक दिन अवश्य पूरा होगा। आपका अभिनन्दन है. हार्दिक धन्यवाद।