अब कहाँ है धीर..?
विलम्ब के घन हो धड़ाधड़,
चपला की हूंकार गड़ागड़,
बूंदें गिरती है तड़ातड़,
अश्रुओं के वीर…
अब कहां है धीर?
गिर पड़े गह्वर में शोणित,
है ‘प्रजापति’ प्राण रंजित,
भाल पर है भाग्य अंकित,
लेख लिख गंभीर…
अब कहां है धीर?
सृष्टि लुण्ठित है बड़ी,
असफलताएँ खड़ी,
रिक्तिकाओं में जड़ी,
ले अनोखी भीर…
अब कहां है धीर?
भागना तो भीरता है,
जागना तो धीरता है,
और करुणा वीरता है,
चीखती है पीर…
अब कहां है धीर?
सुप्त है सब जुजुप्साएँ,
किसके आगे गिड़गिड़ाएँ?
समक्ष है ये विडम्बनाएँ,
गिरी कठिन प्राचीर…
अब कहाँ है धीर?
शूद्र है जो रेंगता है,
कायर खड़ा हो देखता है,
स्वार्थी घट सेंकता है,
जा अरुण के तीर…
अब कहाँ है धीर?
पाखियों के पूज्य पण्डित,
कर रहे मूरत विखण्डित,
क्षुब्धताओं से है मण्डित,
चल हो चलें अधीर…
अब कहां है धीर?
पश्चिमी अंधड़ घुमड़ कर,
निर्लज्जता से उमड़ कर,
बेहयाओं से बिछड़ कर,
खींचे अपना चीर…
अब कहाँ है धीर?
पाषाण-सा तू क्यों खड़ा,
पहेलियों में क्यों जड़ा,
क्या तम उजाले से बड़ा,
ला रवि का नीर…
अब कहाँ है धीर?
तारकों की बात ना कर,
पावकों में हाथ ना कर,
शावकों का साथ ना कर,
भस्म कर शरीर…
अब कहाँ है धीर?
वाह वाह .
धन्यवाद सा
बहुत खूब !
धन्यवाद…