एक ईश्वर के अनेक नामों का आधार
ओ३म्
जिस प्रकार से नेत्रहीन मनुष्य संसार के दृश्यों के बारे में कल्पनायें करता है उसी प्रकार लगता है कि हमारे अल्पज्ञानी लोगों ने ईश्वर व धर्म के बारे में कल्पायें कीं और अपने ज्ञान के अनुरूप ही ईश्वर का स्वरूप भी निर्धारित किया। ज्ञान की वृद्धि के लिए ज्ञान चर्चा, शंका-समाधान, अनुसंधान व खोज, तर्क-वितर्क आवश्यक है। यह एक सतत प्रक्रिया है जो देश व काल से अबाधित रहती है। यदि ऐसा नहीं होगा तो ज्ञान में वृद्धि व उन्नति नहीं हो सकती तथा अज्ञान व अन्धविश्वास अनिवार्यतः उत्पन्न होंगे। विज्ञान तर्क, सृष्टिक्रम के अनुरूप सिद्धान्त, गवेषणा व अनुसंधान आदि साधनों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ा है और अब भी प्रगति कर रहा है। आर्य समाज व वैदिक धर्म को छोड़कर संसार के अन्य धर्म, मत, मतान्तर, सम्प्रदाय आदि अपने-अपने मत के सिद्धान्तों व मान्यताओं की समीक्षा व चर्चा की अनुमति अपने अनुयायियों व अन्यों को नहीं देते और न स्वयं ही पर्यावलोचन करते हैं। इसका एक ही कारण है कि उन्हें डर है कि ऐसा करने पर उनके मत व धर्म के अनेक सिद्धान्त व मान्यतायें असत्य, अनावश्यक व अप्रासंगिक सिद्ध हो सकते हैं। बहुत से तो यह जानते भी हैं, परन्तु अपनी मत की पुस्तकों का हवाला देकर, उनकी उपयोगिता-अनुपयोगिता, सत्य व असत्य, उचित व अनुचित पर विचार नहीं करते और उनका आंखें बन्द कर अनुकरण करते हैं। यह बात मनुष्य के मननशील, सत्यानुगामी होने व ईश्वर से उसे तर्क-वितर्क कर सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए मिली बुद्धि की एक प्रकार से अवहेलना व अपमान ही है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि प्रायः सभी मतों के अनुयायियों को धर्म सम्बन्घी अपना ज्ञान बढ़ाने व दूसरे के मतों का अध्ययन कर स्वेच्छा से अन्यों के धर्म को स्वीकार करने की स्वतन्त्रता नहीं है जिससे मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति में बाधा आ रही है। आवश्यकता तो यह है कि सभी धर्मों के विद्वानों को बैठ कर परस्पर सौहार्दपूर्ण वातावरण में चर्चा कर एक सच्चा मनुष्य धर्म निर्धारित करना चाहिये जिससे विभिन्न मतों के कारण परस्पर होने वाले वैमनस्य व हिंसा को समाप्त कर सभी मतों के लोग परस्पर मैत्री व बन्धुत्व की भावना से अपना जीवन व्यतीत कर सुखों को प्राप्त कर सकें। प्रश्न यह है कि जब ईश्वर एक है और उसी ने सभी मत-मतान्तरों के मनुष्यों को उत्पन्न किया है तो उसकी आज्ञाओं का पालन करने वाला धर्म भी एक ही होना चाहिये। ऐसा ही मत वेदों के अपूर्व विद्वान् महर्षि दयानन्द का था।
आज लेख में हम ईश्वर के अनेक नामों के कारणों पर विचार च चर्चा कर उसके शताधिक नामों को प्रस्तुत करेंगे जिनका आधार महर्षि दयानन्द जी का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है। ईश्वर के लगभग पचास नामों की महर्षिकृत व्याख्या भी सार रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सबसे पहले ईश्वर के अनेक नामों का कारण क्या है? इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव अनन्त हैं। इस कारण ईश्वर के एक-एक गुण, कर्म व स्वभाव के कारण उसके अनेक नाम रखे गये हैं जिनका उल्लेख वेदों व परवर्ती वैदिक साहित्य व इतर अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से विष्णु कहलाता है। विष्णु शब्द का अर्थ व्यापक होना है। ईश्वर का एक नाम सच्चिदानन्द है। यह तीन शब्दों की संधि होकर बना है। सत्त्+चित्त+आनन्द इन तीन शब्दों से ‘सच्चिदानंद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है कि ईश्वर सत्य स्वरूप, चेतन स्वरूप तथा आनन्द स्वरूप है। ईश्वर को ब्रह्म इसलिये कहते हैं कि वह सबसे बड़ा है। ब्रह्म से ही ब्रह्मा शब्द भी बना है। इसी प्रकार से ईश्वर सबका कल्याण करता है। कल्याण करने वाले को शिव कहते हैं। इसी कारण से ईश्वर का एक नाम शिव है। इस प्रकार से ईश्वर के असंख्य व अनन्त नाम हो सकते हैं क्योंकि उसमें अनन्त गुण, क्रियायें व कर्म आदि हैं। यह ध्यान रखना चाहिये कि संसार में ईश्वर व परमात्मा केवल एक ही है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि देवी-देवता क्या हैं? इसका उत्तर है कि जो किसी को कुछ देता है वह देवी व देवता कहलाता है। देवी शब्द स्त्रीलिंग व देव या देवता शब्द पुर्लिंग में देने वाले के लिए प्रयोग किये जाते हैं। देवता जड़ व चेतन दो प्रकार के होते हैं। वायु हमें श्वांस के लिए प्राणवायु देती है इसलिए वायु एक जड़ देवता हैं। अतः हमें वायु की पूजा वायु को शुद्ध रख कर करनी है जिससे हम व अन्य लाभान्वित होते रहें। यदि वायु शुद्ध नहीं होगी तो न हम सुखी रह सकते हैं और न अन्य। अतः सभी लोगों को प्रतिदिन प्रातः व सायं यज्ञ करना चाहिये जिससे वायु न केवल शुद्ध होती है अपितु इससे स्वास्थ्य को अनेक लाभ भी होते हैं। अग्नि भी जड़ देवता है। इससे हमें ताप व प्रकाश दोनों मिलते हैं। इसके गुणों को जानकर स्वयं व अन्यों को लाभान्वित करना ही अग्नि देवता की पूजा है। वैज्ञानिकों ने अग्नि के गुणों को जानकर इसका समष्टि के कल्याण के लिए उपयोग किया। यह एक प्रकार से अग्नि-पूजा ही है। इसी प्रकार जो हमारे माता, पिता, आचार्य, राजा, न्यायाधीश आदि हैं वह भी देवता श्रेणी में आते हैं। माता को स्त्रीलिंग होने के कारण देवी कह सकते हैं। इसी प्रकार परिवार की बड़ी आयु की स्त्रियों, आचार्याओं, अध्यापिकाओं, चिकित्सिकाओं व अन्य सेवा कार्य करने वाली स्त्रियों को देवी कहते हैं। जो मनुष्य अपने जीवन में अच्छे कार्य करने से देवी व देवताओं के नामों से प्रसिद्ध हो गये उनकी पूजा अब केवल इतनी ही बनती है कि हम उनके गुणों के अनुसार स्वयं भी बने। उनके मन्दिर बनाकर उसमें उनकी पार्थिव व धातु की मूर्ति बना कर पूजा करने से कोई लाभ नहीं होता। यह अनुचित कार्य है। वेदों में इसका कहीं कोई विधान नहीं है। यह कोरा अन्धविश्वास है। इससे मनुष्यों को बचना चाहिये और वेदों का स्वाध्याय व ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर अपना आध्यात्मिक व भौतिक ज्ञान बढ़ाना चाहिये तथा नित्य प्रति ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, सेवा, परोपकार, सुपात्रों को दान आदि देने का कार्य करना चाहिये।
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में ईश्वर के एक सौ से अधिक नामों का वर्णन किया है। आईये, इन नामों पर दृष्टि डालते हैं। ओ३म् ईश्वर का प्रधान व निज नाम है। अन्य सभी ईश्वर के गौणिक नाम है। रक्षा करने से भी ईश्वर को ओ३म् नाम से पुकारा जाता है। ईश्वर कभी नष्ट नहीं होता इस कारण उसे अक्षर व ओ३म् कहते हैं। ईश्वर का एक अन्य नाम ‘विराट’ है। यह इस कारण से है कि ईश्वर विविध अर्थात् बहुत प्रकार के जगत् को प्रकाशित करता है। ईश्वर का नाम ‘अग्नि’ इसलिये है कि वह ज्ञानस्वरूप व सर्वज्ञ है तथा जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है। ईश्वर का नाम ‘विश्व’ इस कारण से है कि उसमें आकाश आदि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इन सब भूतों में व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है। ईश्वर का एक नाम ‘हिरण्यगर्भ’ है, यह इस कारण से है कि उस ईश्वर में सूर्यादि तेज वाले लोक उत्पन्न होके उसी के आधार पर विद्यमान रहते हैं। सूर्यादि तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम, उत्पत्ति और निवास स्थान है, इस लिए उस परमेश्वर को ‘हिरण्यगर्भ’ कहते हैं। चराचर जगत का धारण, जीवन और प्रलय करने तथा बलवानों से भी बलवान होने के कारण ईश्वर को ‘वायु’ कहते हैं। ईश्वर स्वयं प्रकाशस्वरूप और सूर्यादि तेजस्वी लोकों का प्रकाश करने वाला है, इससे उसका नाम ‘तैजस’ है। वह सत्य, विचारशील, ज्ञान और अनन्त ऐश्वर्य से यु क्त होने से ‘ईश्वर’ कहलाता है। ईश्वर का विनाश कभी नहीं होता, इसलिए ईश्वर को ‘आदित्य’ नाम से सम्बोधित किया जाता है। निर्भरान्त ज्ञानयुक्त सब चराचर जगत् के व्यवहार को यथावत् जानने के कारण ईश्वर का एक नाम ‘प्राज्ञ’ भी है। ईश्वर का एक नाम ‘परमेश्वर’ सर्व प्रसिद्ध है। यह इसलिए है कि स्तुति, प्रार्थना, उपासना करने के लिए उससे श्रेष्ठ संसार में अन्य कोई नहीं है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सब से अधिक हो। सब पदार्थों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ है उस को परमेश्वर करते हैं। यहां यह भी जानने योग्य है कि ईश्वर के तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्यों कर हो सकता है। जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण है, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं है, इसी कारण उस परमात्मा का एक नाम ‘परमेश्वर’ है।
ईश्वर का एक नाम ‘मित्र’ भी है वह इस कारण से है कि ईश्वर सब से स्नेह करता है और वही सबको प्रीति करने के योग्य है। ईश्वर सबका निश्चित ही मित्र है, वह किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है। ईश्वर का नाम ‘वरूण’ इस कारण से है कि वह आत्मयोगी विद्वान, मुक्ति की इच्छा करने वाले मुक्त और धर्मात्माओं का स्वीकारकर्ता अथवा जो शिष्ट मुमुक्षु मुक्त और धर्मात्माओं से ग्रहण किया जाता है, इसलिए वह ईश्वर ‘वरूण’ संज्ञक है। ‘वरूण नाम वरः श्रेष्ठः’ अर्थात् सब से श्रेष्ठ होने के कारण परमेश्वर का एक नाम वरूण है। सत्य न्याय के करनेवाले मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्ता होने से उस परमेश्वर का नाम ‘अर्य्यमा’ है। अखिल ऐश्वर्ययुक्त होने से उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है। बड़ो से भी बड़ा और बड़े आकाशादि ब्रह्माण्डों का स्वामी होने से उस परमेश्वर का नाम ‘बृहस्पति’ है। अचररूप जगत् में व्यापक होने से उस परमात्मा का एक नाम ‘विष्णु’ है। अनन्त पराक्रम युक्त होने से ईश्वर का एक नाम ‘उरूक्रम’ है। सब से बड़ा, सबके ऊपर विराजमान और अनन्तबलयुक्त परमात्मा का एक नाम ‘ब्रह्म्’ है। जो सब जगत् के चेतन व जंगम प्राणियों, अप्राणी अर्थात् पृथिवी आदि सबका आत्मा तथा स्वप्रकाशरूप होकर सब प्रकार से सर्वत्र प्रकाश करने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य्य’ है। सब जीवों व अन्य सभी पदार्थों से उत्कृष्ट, जीव, प्रकृति तथा आकाश से भी अतिसूक्ष्म और सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा होने से ईश्वर का नाम ‘परमात्मा’ भी है। सब जगत् का उत्त्पत्तिकर्ता होने से ईश्वर का नाम ‘सविता’ है। जो शुद्ध जगत् को क्रीड़ा कराने, धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त व्यवहार, सब चेष्टा साधनोपसाधनों का दाता, स्वयंप्रकाशस्वरूप, सब का प्रकाशक, प्रशंसा के योग्य, आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा, मदोन्मत्तों का ताड़नेहारा, सब के शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा, कामना के योग्य और ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का एक नाम ‘देव’ है। ईश्वर अपनी व्याप्ती से सब का आच्छादन करता है, इसलिए उसका नाम ‘कुबेर’ है। सब विस्तृत जगत का विस्तार करनेवाला होने से ईश्वर का एक नाम ‘पृथिवी’ है। दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योऽन्य संयोग वा नियोग करता है, इसलिए परमात्मा का नाम ‘जल’ है। सब ओर से सब जगत् का प्रकाशक होने से ईश्वर का नाम ‘आकाश’ है।
सब जगत को भीतर रखने, सब को ग्रहण करने योग्य, चराऽचर जगत् का ग्रहण करने वाला है, इस से ईश्वर के ‘अन्न’, ‘अन्नाद’ और ‘अत्ता’ नाम हैं। जिसमें सब आकाश, पृथिवी आदि पांचों भूत वसते हैं और जो सब में वास कर रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘वसु’ है। जो दुष्ट कर्म करने वालों को रूलाता है इससे परमेश्वर का नाम ‘रूद्र’ भी है। जल व जीवों में व्यापक होकर निवास करने से परमात्मा का नाम ‘नारायण’ है। स्वयं आनन्दस्वरूप होने व सबको आनन्द देने से परमात्मा का नाम ‘चन्द्र’ है। मंगलस्वरूप होने तथा जीवों को मंगल प्रदान करने के कारण ईश्वर का नाम ‘मंगल’ है। जो स्वयं बोधस्वरूप और सब जीवों के बोध का कारण है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘बुध’ है। अत्यन्त पवित्र और जिसके संग से जीव भी पवित्र हो जाता है, ऐसा जो ईश्वर है उसका नाम ‘शुक्र’ है। सबमें सहजता से प्राप्त होने तथा धैर्यवान होने से ईश्वर का नाम ‘शनि’ है। जो एकान्तस्वरूप जिसके स्वरूप में दूसरा पदार्थ संयुक्त नहीं, जो दुष्टों को छोड़ने और अन्य को छुड़ाने हारा है, इससे परमेश्वर का नाम ‘राहू’ है। जो सब जगत् का निवासस्थान, सब रोगों से रहित और मुमुक्षुओं को मुक्ति समय में सब रोगों से छुड़ाता है, इसलिये उस परमात्मा का नाम ‘केतु’ है। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ तथा ‘यो यजति विद्धद्धिरिज्यते वा स यज्ञः’ जो सब जगत् के पदार्थों को संयुक्त करता और सब विद्वानों का पूज्य है, जो ब्रह्मा से लेके सब ऋषि मुनियों का पूज्य था, है और होगा, इससे उस परमात्मा का नाम ‘यज्ञ’ है, क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक है। ‘यो जुहोति स होता’ जो जीवों को देने योग्य पदार्थों का दाता और ग्रहण करने योग्यों का ग्राहक है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘होता’ है। जिसने अपने में सब लोकलोकान्तरों को नियमों से बद्ध कर रक्खे हैं और सहोदर के समान हम सबका सहायक है, इसी से लोक-लोकान्तर अपनी-अपनी परिधि वा नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। जैसे भ्राता भाइयों का सहायकारी होता है, वैसे परमेश्वर भी पृथिव्यादि लोकों के धारण, रक्षण और सुख देने से ‘बन्धु’ संज्ञक है। जो सब का रक्षक जैसे पिता अपनी सन्तानों पर सदा कृपालु होकर उनकी उन्नति चाहता है, वैसे ही परमेश्वर सब जीवों की उन्नति चाहता है, इस से उस का नाम ‘पिता’ है। जो पिताओं का भी पिता है, इससे उस परमात्मा का नाम ‘पितामह’ है। जो पिताओं के पितरों का पिता है इससे परमेश्वर का नाम ‘प्रपितामह’ है। जैसे पूर्ण कृपायुक्त जननी अपनी सन्तानों का सुख और उन्नति चाहती है, वैसे परमेश्वर भी सब जीवों की बढ़ती वा उन्नति चाहता है, इस से परमेश्वर का नाम ‘माता’ है। जो सत्य आचार का ग्रहण करानेहारा और सब विद्याओं की प्राप्ति का हेतु होके सब विद्या प्राप्त कराता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘आचार्य’ है। जो सत्यधर्म प्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरूओं का भी गुरू और जिसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘गुरू’ है। हमने इस लेख में ईश्वर के पचास नामों व उनके अर्थ, अभिप्राय व तात्पर्य पर प्रकाश डाला है। आशा है कि इससे पाठक ईश्वर के अनेक नामों के कारणों को समझ सकेंगे। यह भी जान गये होंगे ईश्वर केवल एक ही है।
महर्षि दयानन्द ने अपने इस ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में ईश्वर के एक सौ नामों की व्याख्या की है। लेख का अधिक विस्तार होने से हम शेष नामों की व्याख्या छोड़ रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश में दिये गये ईश्वर के अन्य नाम क्रमशः हैं–अज, ब्रह्मा, सत्य, ज्ञान, अनन्त, अनादि, आनन्द, सत्, चित्, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, नित्यशुद्धबुद्धमुक्त, निराकार, निरंजन, गणेश, गणपति, विश्वेश्वर, कूटस्थ, देव, देवी, शक्ति, श्री, लक्ष्मी, सरस्वती, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, अन्तर्यामी, धर्मराज, यम, भगवान, मनु, पुरूष, विश्वम्भर, काल, शेष, आप्त, शंकर, महादेव, प्रिय, स्वयंभू, कवि और शिव आदि। ईश्वर के सौ नामों की व्याख्या कर महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ये सौ नाम परमेश्वर के लिखे हैं, परन्तु इन से भिन्न परमात्मा के असंख्य नाम हैं क्योंकि जैसे परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं, वैसे उस के अनन्त नाम भी हैं। उनमें से प्रत्येक गुण, कर्म्म और स्वभाव का एक-एक नाम है। इस से यह मेरे लिखे नाम समुद्र के सामने बिन्दुवत् है। क्योंकि वेदादि शास्त्रों में परमात्मा के असंख्य गुण, कर्म, स्वभाव व्याख्यात किये हैं। उनके पढ़ने पढ़ाने से बोध हो सकता है। और अन्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हीं को पूरा-पूरा हो सकता है, जो वेदादिशास्त्रों कोद पढ़ते हैं।
ईश्वर के उक्त सभी नामों को विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन आवश्यक है। हमने इसका संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख, मान्यवर ! आपने ईश्वर के अनेक नामों की सरल और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। इससे पाठक का ज्ञान निश्चय ही बढ़ता है और भ्रांतियाँ का निराकरण होता है। धन्यवाद!
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। आपके विचार स्तुत्य हैं। ईश्वर सम्बन्धी भ्रांतियों को दूर करना हम सबका कर्तव्य है। इसी भावना से यह लेख लिखा था। आपने जो शब्द कहे उससे मेरा यह थोड़ा का किया हुआ परिश्रम सफल हुआ। यह बात लोगो के जहन / ह्रदय व आत्मा में आनी चाहिए कि ईश्वर केवल व केवल एक है और यह सब नाम आदि उसी ईश्वर के गुण व विभूतियां हैं। सादर धन्यवाद एवं आभार।
मनमोहन जी , लेख अच्छा है लेकिन कुछ गहराई से सोचने वाले लोगों के लिए है . मुझे इस बात की कभी समझ नहीं आई कि यदि गेंहूँ को वीट पंजाबी में कणक कह लें तो कोई फरक नहीं पड़ेगा , तो फिर जब सभी मानते हैं कि भगवान् है तो फिर यह किओं लोग कह देते हैं कि “मेरा धर्म ही सब से अच्छा है ” ” भगवान् को पाने का मेरा ढंग ही सही है “. मैं समझता हूँ कि इसी से कन्फ्रोंटेशन शुरू होती है और नफरतें होने लगती हैं . इस का समाधान कैसे हो सकता है ?
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख का सार यह है कि ईश्वर इस अखिल ब्रम्हांड में केवल एक है। उसके गुण असंख्य व अनंत हैं। इसी प्रकार से सभी मनुष्यों का धर्म भी एक है। मत अनेक हो सकते हैं जैसा कि आजकल है। सभी मतों के विचार व मान्यताओं में कुछ समानताएं और कुछ असमानताएं हैं। कुछ मान्यताएं एक दूसरे की विरोधी भी हैं। अतः सभी सत्य वा ठीक नहीं हो सकते। यदि सब एक साथ बैठ कर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें तो सत्य व असत्य का निर्णय हो सकता है। आपके प्रश्न विचारणीय हैं। मैं इन पर विचार करूँगा और अपने विचारों को एक लेख की शकल देने की कोशिश करूँगा। आपका हार्दिक धन्यवाद।
behad gyaan vardhak lekh.. itni jaankaari dene ke liye shukriya
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।