ठकुरेला की कुण्डलियाँ
कितनी पीड़ा झेलकर , कटते हैं दिनमान ।।
कटते हैं दिनमान , मान मर्यादा खोकर ।
कब होते खग मुग्ध , स्वर्ण -पिंजरे में सोकर ।
‘ठकुरेला’ कविराय , गुलामी चाही किसने ।
जीवन लगा कलंक , दासता झेली जिसने ।।
मालिक है सच में वही , जो भोगे , दे दान ।
धन जोड़े , रक्षा करे , उसको प्रहरी मान ।।
उसको प्रहरी मान , खर्च कर सके न पाई ।
हर क्षण धन का लोभ, रात दिन नींद न आई ।
‘ठकुरेला’ कविराय , लालसा है चिर-कालिक ।
मेहनत की दिन रात , बने चिंता के मालिक ।।
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ा , लिया शिखर को चूम ।
शून्य रहीं उपलब्धियाँ , उसी बिंदु पर घूम ।।
उसी बिंदु पर घूम, हाथ कुछ लगा न अब तक ।
बहकाओगे मित्र , स्वयं के मन को कब तक ।
‘ठकुरेला’ कविराय , याद रखती हैं पीढ़ी ।
या तो छू लें शीर्ष , या कि बन जायें सीढ़ी ।।
भातीं सब बातें तभी , जब हो स्वस्थ शरीर ।
लगे बसंत सुहावना , सुख से भरे समीर ।।
सुख से भरे समीर , मेघ मन को हर लेते ।
कोयल , चातक मोर , सभी अगणित सुख देते ।
‘ठकुरेला’ कविराय , बहारें दौड़ी आतीं ।
तन , मन रहे अस्वस्थ , कौन सी बातें भातीं ।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बहुत सुंदर कुंडलियाँ