वही दो बुँदे ! वही दो यादें !!
जमा हुवा पानी देखकर आज भी
कागज़ की नांव चलाने का मन करता है
बारिश की दो बूंदों से वो डूब न जाए
सोचकर दिल काँप उठता है
गरजते बादलों को सुनकर आज भी
गोद में दुबकने का मन करता है
हलके से उँगलियों के बिच से फिर
बिजली देखने को दिल करता है
आज भी आँगन में सूखते कपडे उठाने
दौड़ने का मन करता है
बारिश में भीगने के बहाने
ढूंढने का मन करता है
आज भी भीगे बदन बिना रोके
छींकने का मन करता है
डाँटते हुवे दौड़कर आनेवाली
माँ का इन्तजार रहता है
आज भी टूटे छाते में स्कूल का
बस्ता बचाने का मन करता है
देर होने पर भीगे बाल सहलाते
टीचर से डरने का मन करता है
आज भी घर लौटते हुवे पानी में कहीं
एक ‘छपाक’का मन करता है
कपड़ो पर कीचड़ के दाग के लिए
साथी पर इल्जाम लगाने का
दिल करता है
आज भी बिजली गुल होने पर
घर में माचिस ढूंढने का मन करता है
चूल्हे के उजाले में माँ का
चेहरा देखने का दिल करता है
आज भी छत से चूती बूंदों की
जगह ढूंढने का मन करता है
सोने के लिए सूखी जगह पर
भाई से लड़ने का दिल करता है
आज भी अच्छे घर में न रखने के लिए
पिता पर झुंजलाने का मन करता है
सुबह रात भर की जागी उनकी आँखों से
शर्मिंदा होने का दिल करता है
आज भी छत पर गिरती बारिश की
आवाज सुनने का मन करता है
खरखराते रेडियो में भी सुरीले
गीत लगाने का दिल करता है
आज भी बादलों की शिकायत करते
सूरज को मुहँ चिढ़ाने का मन करता है
घनी डरावनी रातों में एक भी तारा देख
खुश होने को दिल करता है
-सचिन परदेशी’सचसाज’
बहुत अच्छी कविता , वोह दिन कितने अछे थे ,कागज़ की कश्ती ,बारश का पानी .
आपका बहुत बहुत आभार ! धन्यवाद गुरमेल सिंह भमरा जी !!
बहुत सुन्दर कविता ! उन दिनों की याद अंतिम साँस तक नहीं भूल सकते.
बहुत आभार ,धन्यवाद विजय कुमार सिंघल जी !!