कुछ हाइकु
कटे जब से
हरे भरे जंगल
उगीं बाधाएँ
कोसते रहे
समूची सभ्यता को
बेचारे भ्रूण
दौड़ाती रही
आशाओं की कस्तूरी
जीवन भर
नयी भोर ने
फडफढ़ाये पंख
जागीं आशाएं
प्रेम देकर
उसने पिला दिए
अमृत घूँट
नहीं लौटता
उन्हीं लकीरों पर
समय-रथ
—-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
अच्छे हाइकु !