लघुकथा : जायज़
घटना नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की है। काफ़ी बहस के बाद कुली सौ रूपये में राज़ी हुआ तो मेरे ‘साले’ के चेहरे पर हर्ष की लहर दौड़ गई। एक छोटी-सी लोहे की ठेला-गाड़ी में कूली ने दो बक्से, चार सूटकेश और बिस्तरबंद बड़ी मुश्किल से व्यवस्थित किया और बताये गए स्थान पर चलने लगा।
“इस सामान का वज़न कराया है आपने?” सामने से आते एक निरीक्षक ने मेरे साले की तरफ़ प्रश्न उछाला।
“कहाँ से आ रहे हो?” दूसरा प्रश्न।
“कोटद्वार से …”
“कहाँ जाओगे?” तीसरा प्रश्न।
“जोधपुर में मेरी पोस्टिंग हुई है। सामान सहित बाल-बच्चों को लेकर जा रहा हूँ।”
“निकालो पाँच सौ रूपये का नोट, वरना अभी सामान ज़ब्त करवाता हूँ।” हथेली पर खुजली करते हुए वह काले कोट वाला व्यक्ति बोला।
“अरे साहब एक सौ रूपये का नोट देकर चलता करो इन्हें …” कुली ने अपना पसीना पोछते हुए बुलन्द आवाज़ में कहा, “ये इन लोगों का रोज़ का नाटक है।”
“नहीं भाई पुरे पाँच सौ लूँगा।” और कानून का भय देखते हुए उसने पाँच सौ रूपये झाड़ लिए और मुस्कुराकर चलता बना।
“साहब सौ रूपये उसके हाथ में रख देते, तो भी वह ख़ुशी-ख़ुशी चला जाता। उस हरामी को रेलवे जो सैलरी देती है, पूरी की पूरी बचती है। इनका गुज़ारा तो रोज़ाना भोले-भाले मुसाफ़िरों को ठगकर ऐसे ही चल जाता है।”
“अरे यार वह कानून का भय देखा रहा था। अड़ते तो ट्रैन छूट जाती।” मैंने कहा।
“अजी कानून नाम की कोई चीज़ हिन्दुस्तान में नहीं है। बस ग़रीबों को ही हर कोई दबाता है। जिनका पेट भरा है उन्हें सब सलाम ठोकर पैसा देते हैं!” कूली ने ग़ुस्से में भरकर कहा, “मैंने मेहनत के जायज़ पैसे मांगे थे और आप लोगों ने बहस करके मुझे सौ रूपये में राज़ी कर लिया जबकि उस हरामखोर को आपने खड़े-खड़े पाँच सौ का नोट दे दिया।”
कुली की बात पर हम सब शर्मिन्दा थे क्योंकि उसकी बात जायज़ थी।
अच्छी लघुकथा !