“गाँव वीरान सा क्यूँ है”
आज गांवों में गाँव ये वीरान सा क्यूँ है
हर सड़क पर शहर परेशान सा क्यूँ है
जिन गलियों में खुशियों की थी छावनी
उस डगर पर मायूसी सूनसान सा क्यूँ है ||
हर चेहरें पर चेहरा घमासान सा क्यूँ है
हर आँगन में बिखरा तूफान सा क्यूँ हैं
हर लवों पे थिरकती है इमानचालीसा
फिर अपने ही घरों में दुकान सा क्यूँ है ||
हर शय में चाहत बदजुबान सा क्यूँ है
सफ़ेद कालर पर धब्बा निशान सा क्यूँ हैं
तन्हाई के पालने में झूल रहा इन्शान
फिर निगाहों में बैठा ये गुमान सा क्यूँ है ||
अपना ही विस्तर आज मेहमान सा क्यूँ है
चंद चहलकदमी पर इत्मीनान सा क्यूँ है
रसोइया चखे स्वाद ठाकुर बाबा से पहले
फिर बाजारी आवभगत से थकान सा क्यूँ है ||
बंद लिफ़ाफ़े में खोया आसमान सा क्यूँ है
खुला मजमून तो इतना तूफ़ान सा क्यूँ है
कलम खुद नहीं चलती किसी कागज पर
अंगुली में स्याही का निशान सा क्यूँ है ||
हवा पानी आंधी संग तूफान सा क्यूँ है
जमाना इस जंग से अनजान सा क्यूँ है
लगाकर बबूल का पेड़ अपने ही हाथों से
जख्म से न पूछों, पाँव नादान सा क्यूँ है ||
महातम मिश्र
बहुत बढ़िया गजल !
सादर धन्यवाद विजय कुमार जी, आप की नजरें इस गजल पर इनायत हुयी आभार मान्यवर