मिट्टी के दिए
मंगला हर दीवाली के पंद्रह दिन पहले से दिए बेचने की तैयारी में लग जाती है, हर साल वो दिए बनाने की शुरुआत दो महीने पहले से ही कर देती है। मगर इस साल गए साल की तरह दिए न बन सके। इस साल बारिश की वजह से चारो तरफ पानी ही पानी ………..कहाँ से मिट्टी लाये? मौसम न खुले तो दिए कहाँ सूखें? कहाँ दिए पकाये? मगर जो भी था उसी में जोड़ गाँठ कर अपना घर चला लेती थी ।
इस बार दिए भी बहुत कम बने थे, सो मंगला ने दीयों की कीमत बढ़ा दी थी। उसका पति बोला भी कि पैसे न बढ़ा, नहीं तो जो है, उस से भी हाथ धो बैठेगी। मगर मंगला कहने लगी बड़ी बस्ती में बेचूँगी, वहाँ तो कला की कीमत है, मिट्टी की नहीं। देखना! पिछले साल से अधिक कमाई होगी, और मंगला नहीं मानी।
मंगला धीरे धीरे दिए से भरी लॉरी लिए बड़ी बस्ती पहुँच गयी । बड़ी बस्ती क्या….कहने का मतलब संभ्रांत अच्छे खाते पीते घरों का एक समूह ।पहले पहल कुछ दिए उसके राधा ने खरीद लिए। राधा इसी बस्ती में किराये के मकान में रहती थी, गोपालबाबू के यहां। अभी राधा दिए देख ही रही थी कि तब तक गोपाल बाबू कि अम्मा भी आ गयीं …..दिए कैसे दिये ? और उसकी दिए के रूप में जो विशिष्ट कलाकृति थी, उसका प्रति दर्जन के हिसाब से मोल लगाने लगीं। अरी हैं तो मिट्टी के ही, मिट्टी का क्या मोल? मंगला कहती – न माँजी माटी का न मोल मांगूँ, मगर गरीब हूँ, हमारी मेहनत का तो मोल दो। एक एक दिया दस दस रूपए का बिके है, और तुम दस रूपए दर्जन में लेने की कहे हो ।अम्मा सादा दिए ले लो, तुम्हारी कोठी की शोभा न बढ़ाएं, मगर रोशनी उतनी हीं देंगे ।
अम्मा भड़क उठीं कि इतनी बात मंगला ने कैसे कह दी तब तक मंगला की छोटी लड़की से घर का काँच का गुलदान गिर गया। बस फिर क्या था, अम्मा ने ढेरों सुनायीं मंगला को और सारे दिए रखवा लिए गुलदान की कीमत पर!!! मंगला रुआँसी होकर अपनी लॉरी खाली कर आगे बढ़ गयी ।
राधा ऊपर अपने किराये के कमरे से सब देख रही थी उससे देखा न गया और झट से पाँच सौ की नोट लेके नीचे उतर गयी और हांफते हांफते पहुँच गयी मँगला के पास और उसके आगे रूपए कर दिए । मंगला हैरान रह गयी -अरे बीबी तुमने रूपए दिए तो, भूल गयी । राधा ने रूपए उसकी हथेली पर रखते हुए कहा – त्यौहार तो तेरा भी है। कुछ रोशनी तू अपने घर भी कर लेना, त्यौहार पर तेरा रोकर जाना अच्छा नहीं लगा सो ले आयी ।
मंगला ने रूपए लेने से इनकार कर दिया, और कहने लगी वो मेहनत का पैसा लेती है वो ये रूपए नहीं लेगी। प्रभु की जैसी इच्छा , इस दीवाली रोशनी न सही मगर इस बस्ती में कभी न आऊँ बीवी – यहाँ सब मिट्टी के दिए हैं जिनकी रोशनी सिर्फ अपने लिए है, दूसरे के तो मन में भी उजाला न कर सके हैं और मंगला आगे चली गयी !
अच्छी कहानी !