मुनिया
भूख ने पकड़ा दिया
असमय
चूल्हा चौका , बर्तन वासन
गुड्डे गुड़ियोँ को खेलने की उम्र मेँ
काम पर जाने लगी
मुनिया – – –
स्कूल जाते बच्चोँ को
ललचाती नजरोँ से देखते देखते
वह पार कर जाती है
अपनी गली
एक फलांग की दूरी पर ही है
उसका अपना संसार
जूठे बर्तन का अंबार – – –
कब बचपन की देहरी लांघ गई
मुनिया
पता ही न चला
आज
असमय
उसे अपने अजन्मे शिशु का
खून के छीँटे देखना पड़ा
क्योँकि
समाज को स्वीकार नहीँ
उसका
अनब्याही माँ बनना – – –
– -सीमा सहरा – –
बहुत सुंदर कविता