कविता

मुनिया

भूख ने पकड़ा दिया
असमय
चूल्हा चौका , बर्तन वासन
गुड्डे गुड़ियोँ को खेलने की उम्र मेँ
काम पर जाने लगी
मुनिया – – –

स्कूल जाते बच्चोँ को
ललचाती नजरोँ से देखते देखते
वह पार कर जाती है
अपनी गली
एक फलांग की दूरी पर ही है
उसका अपना संसार
जूठे बर्तन का अंबार – – –

कब बचपन की देहरी लांघ गई
मुनिया
पता ही न चला
आज
असमय
उसे अपने अजन्मे शिशु का
खून के छीँटे देखना पड़ा
क्योँकि
समाज को स्वीकार नहीँ
उसका
अनब्याही माँ बनना – – –

– -सीमा सहरा – –

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

One thought on “मुनिया

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर कविता

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