“चलने के खातीर”
उठता हूँ गिरता हूँ चलने के खातीर
पढता हूँ लिखता हूँ चलने के खातीर
निगाहें लगी सिर्फ मंजिल डगर पर
कहता हूँ सुनता हूँ चलने के खातीर ||
बताओं न दुनियां में राहें हैं कितनी
चलूँ कैसे किसपर निगाहें हैं कितनी
फकत पैर चलता है पगडंडियों पर
घिसता हूँ राहों को चलने के खातीर ||
थकता हूँ रुकता हूँ अपने घरों में
हर पल मचलता हूँ अपने दरों में
परछाइयों संग चलता तो मै भी
चतली है दुनिया सरकने के खातीर ||
सुबह से हुयी शाम चलता रहा हूँ
लगता है हर पल मै गिरता रहा हूँ
सम्हलने की फुरसत कैसी बला है
राही हूँ चलता हूँ चलने के खातीर ||
महातम मिश्र
बहुत बढिया.
सादर धन्यवाद गुरमेल सिंह जी