कविता

“चलने के खातीर”

उठता हूँ गिरता हूँ चलने के खातीर

पढता हूँ लिखता हूँ चलने के खातीर

निगाहें लगी सिर्फ मंजिल डगर पर

कहता हूँ सुनता हूँ चलने के खातीर ||

बताओं न दुनियां में राहें हैं कितनी

चलूँ कैसे किसपर निगाहें हैं कितनी

फकत पैर चलता है पगडंडियों पर

घिसता हूँ राहों को चलने के खातीर ||

थकता हूँ रुकता हूँ अपने घरों में

हर पल मचलता हूँ अपने दरों में

परछाइयों संग चलता तो मै भी

चतली है दुनिया सरकने के खातीर ||

सुबह से हुयी शाम चलता रहा हूँ

लगता है हर पल मै गिरता रहा हूँ

सम्हलने की फुरसत कैसी बला है

राही हूँ चलता हूँ चलने के खातीर ||

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on ““चलने के खातीर”

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत बढिया.

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद गुरमेल सिंह जी

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