कविता

कविता

राँझना तुम्हे पता हैं
अकेले बर्फ ही नही जमती
वक्त भी जम जाता हैं
हो जाता हैं सख्त
चट्टानों की तरह
जिस दिन तुम नजर नही आते
अंधी हो जाती हूँ
सबकुछ रुक जाता हैं
मेरे सीने की धडकन
मेरा लहू,मेरी साँसे
जैसे अन्धेरा पथरा जाता हैं
तो जान जाती हूँ कि
कैसे तुम्हारे साथ गुज़ारे एक पल में
मैं सदिया जी लेती हूँ
उस पाक से नूरानी पल में
कैसे युग समा जाते हैं
पूरी जन्नत झुक जाती हैं
उस पल आगे
तुम्हारे बिना
तो जैसे कुदरत थम जाती हैं
क्या तुमने कभी देखा हैं
समय को इसतरह रुकते
और जमते ?
मैंने देखा हैं

नस नस जम जाती हैं
सपने गुम जाते हैं
अरमान कत्ल हो जाते हैं
उम्मींदे फांसी लगा लेती हैं
पूरी दुनिया रुक जाती हैं
सूरज जड़ हो जाता हैं
और लगातार आग बरसती हैं
चाँद हैं तो ,
आकाश में ही लटक
जाता हैं किसी योगी की तरह
अपनी ही परछाई तक नही दिखती
डरावनी खामोशी गूंजती हैं
गूंजती भी कहा हैं
पूरी कायनात गूंगी हो जाती हैं
दुनिया के सारे लफ्ज़
गुम जाते हैं
और मेरा वजूद इस जमे हुए समय में
एक लाश की तरह लटक जाता हैं …!!

…….रितु शर्मा 

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता !

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