“ओंकार स्तोत्र” का पाठ कर जीवन की समस्याओं को हल करें।
ओ३म्
आर्यजगत के पहली पीढ़ी के एक प्रमुख विद्वान पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी ने अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थों की रचना की जिनमें से एक ग्रन्थ “ओंकार निर्णय” है। ओंकार अथवा ओ३म् ही ईश्वर का मुख्य व निज नाम है और इस नाम में ईश्वर के सर्वाधिक गुणों का समावेश है। यह नाम सरल व सुबोध होने से इसे बालक व वृद्धों सहित गूंगा व बहरा बन्धु भी इसका उच्चारण कर सकता हैं। जब इस नाम का उच्चारण करते हैं तो इसमें ईश्वर के अधिकांश गुणों के सम्मिलित होने से एक शब्द से ही ईश्वर के अनेक गुणों का उच्चारण वा स्मरण होने से सार्थक स्तुति, प्रार्थना व उपासना हो जाती है। संसार के साहित्य में ईश्वर के अनेक नाम हैं परन्तु जो अर्थ की गम्भीरता व अनेकानेक गुणों का समावेश ईश्वर के इस ओ३म् नाम में है वह अन्य नामों में नहीं है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना में ओ३म् के जप वा गायत्री मन्त्र के जप का विधान है जिससे उपासक को अनेक विध लाभ होता है। एक स्थान पर आर्यसमाज का वाषिर्कोत्सव हो रहा था। वहां आर्यसमाज के विद्वान श्री बुद्धदेव विद्यालंकार जी मुख्य प्रवचनकर्त्ता के रूप में पधारे थे। उन्होंने वहां एक सप्ताह तक गायत्री मन्त्र पर ही प्रवचन किया। अगले वर्ष उत्सव में वहां स्वामी अमरस्वामी को आमंत्रित किया गया। उन्हें किसी ने बताया कि यहां पिछली बार पं. बुद्धदेव जी ने एक सप्ताह तक गायत्री मन्त्र पर ही प्रवचन किया था। यह सुन कर स्वामी अमरस्वामी जी ने कुछ विचार किया और एक सप्ताह तक वहां केवल ओ३म् पर ही अपना प्रवचन किया। हमें यह आश्चर्यजनक लगता है कि एक विद्वान एक सप्ताह तक प्रातः व सायंकाल के अपने प्रवचनों में एक ओ३म् शब्द को ही अपना विषय बना कर उस पर प्रवचन कर सकता है, परन्तु यह सत्य घटना है। ओ३म् नाम व शब्द की महिमा अपरम्पार है। इसके लिए महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिये। वेदों में तो इस ओ३म् शब्द को प्रत्येक मन्त्र के आदि व अन्त में बोलने की परम्परा इसके महत्व के कारण ही की गई है। यह सारा संसार और हम सब ओ३म् में ही स्थित हैं। अतः उस ओ३म् ईश्वर वा परमात्मा का जप, स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना हमारा कर्तव्य है। बहुत से लोग इस पर विचार करने व कुछ सुनने को भी तैयार नहीं होते। हमें यह उनके अहंकार व पूर्व एवं वर्तमान कुसंस्कार ही प्रतीत होते हैं जिस कारण उन्हें अपने हित की बात भी समझ में नहीं आती। आज के इस लेख में हम ओंकार निर्णय पुस्तक के अन्त में दिए गए ओंकार-स्तोत्र को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। यदा कदा खाली समय अथवा उपासना में इसका अर्थपूर्वक पाठ व विचार करने से निश्चय ही लाभ होगा, ऐसा हमारा अध्ययन व अनुभव है। ओ३म् शब्द की इस महिमा के कारण सृष्टि के आदि काल से आरम्भ ऋषि परम्परा के प्रतिनिधि व उत्तराधिकारी महर्षि दयानन्द ने एक-डेढ़ वर्ष के बालक के बोलना वा उच्चारण करना आरम्भ करने पर उसे उसकी माता द्वारा सबसे पहले ओ३म् शब्द का शुद्ध उच्चारण करने का विधान किया है। उसके बाद उसे गायत्री मन्त्र, फिर उस मन्त्र का अर्थ स्मरण कराने का विधान है। इससे वह बालक अपने जीवन में काम, क्रोध, लोभ व मोह जैसे खतरनाक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। इन आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने का संसार में अन्य कोई मार्ग व उपचार किसी चिकित्सक व डाक्टर के पास नहीं है। पहले स्तोत्र के श्लोक व साथ में अर्थ प्रस्तुत हैं।
1 सुखे वा दुःखे वा परिषदि नृणां वाति विजने,
गृहे वा बाह्ये वा गिरि-सुशिखरे वा सुपुलिने।
दिने वा रात्रौ वा उषसि दिवसान्तेऽथ रमणे,
भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं हृदि सदा।।
अर्थ-सुख में वा दुःख में मनुष्यों की सभा में वा निर्जन स्थान में, घर में वा बाहर, पर्वत के सुन्दर शिखर पर या नदी के मनोहर तट पर, दिन में या रात्रि में, प्रातःकाल वा रमणीय सायं-काल में, हे सुमति से विमल, धैर्यशील विद्वान् पुरुषो ! तुम सदा ‘ओम्’ की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना किया करो।
2 रवौ चन्द्रे ज्योतिर्विविध-गण-रम्ये वियति च,
समीरेऽग्नौ भूमाविह निखिल-देहे स्वसुयुते।
वयं पश्यामस्ते शुभमहिमानं समुदितं,
भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं हृदि सदा।।
अर्थ-सूर्य में, चन्द्रमा में, विविध नक्षत्रगणों में रमणीय आकाश में, वायु अग्नि और भूमि में सुन्दर प्राण संयुक्त अखिल शरीर में, हम लोग आपकी ही सुभग महिमा को प्रकाशित देखते हैं। हे उत्तम बुद्धि वाले सज्जन पुरुषो ! तुम सदा इस ओम् की ही पूजा करने वाले बनो।
3 स नो बन्धुः पाता भुवनमखिलं यो रचयति,
प्रजानां संहारे पुनरपि स एवाति बलवान्।
तमेकं जानीध्वं सकलसुखदं, दुःखहरणं,
भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं हृदि सदा।।
अर्थ-वही हम लोगों का बन्धु और पालक है, जो कि अखिल भुवन को रचता है और जोकि सब प्रजाओं का पालन एवं संहार भी करता है। हे पुरुषो ! तुम उसी एक प्रभु को जानो वही सब सुखों का दाता और सब के, सब प्रकार के दुःखों को हरण करने वाला है। हे विद्वानों ! तुम उसी ‘ओम्’ प्रभु का भजन करो।
4 इमं देवं रुद्रं गणपतिमजं विष्णुमजरं,
सुपर्णं ब्रह्माणं विश्वदितिमीशानमनघम्।
तमेके व्याचष्टे बहुविधसुनाम्ना कुशलधीः,
भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं हृदि सदा।।
अर्थ-इस एक ओम् देव को रुद्र, गणपति, अज, विष्णु, अजर, सुपर्ण, ब्रह्म, शिव, अदिति, ईशान, अनघ, आदि विविध नामों से विद्वान् लोग जानते और बताते हैं। हे सज्जनों! यह ओंकार ही भजन करने योग्य है। इसी का भजन करो।
5 त्वमेकः पूज्योऽसि त्वमिह सदयस्त्वं हितकरः,
त्वमेको ध्येयोऽसि त्वमसि रमणो योगिहृदये।
रमस्व त्वं चित्ते त्वमसि मम चित्तं बहुमतं,
भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं हृदि सदा।।
अर्थ-हे भगवान् ! तू ही पूज्य है। तू ही करुणाकर है। तू ही सब का हितकारी है। तू ही एक ध्येय है। योगियों के हृदय में तेरा ही प्रकाश होता है। हे भगवान् मेरे चित्त में भी तू सदा ही विराजमान रहे। तू ही मेरा महान् धन है। हे धैर्यवान् विद्वानो ! आओ, इस ओंकार का भजन करके आत्म-कल्याण को प्राप्त करो।
इस ओंकार स्तोत्र का अर्थ सहित पाठ करने से सभी को लाभ होता है। यह ओंकार स्तोत्र पाठ सभी धर्म, मत, पन्थ, रिलीजन आदि से कहीं ऊपर है। इसके साथ हि जो रोगी व बलहीन वृद्ध भी इस स्तोत्र का अपनी जिस सदेच्छा से मन व बुद्धि को स्तोत्र पर केन्द्रित कर अर्थ सहित पाठ करेगा, हमारा अनुमान व विश्वास है कि उसे इससे लाभ अवश्य होगा क्योंकि यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किया गया कोई भी कर्म व्यर्थ कभी नहीं जाता जिसका प्रमाण है ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।’ अर्थात् प्रत्येक कर्म का अनुकूल व प्रतिकूल लाभ अवश्य होता है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि यह स्तोत्र अनार्ष नहीं अपितु आर्ष रचना है। वेदों के अनुरूप होने के कारण यह परतः प्रमाण की श्रेणी में है। आईये, हम सब इससे लाभ उठाने का निश्चय व संकल्प करें।
–मनमोहन कुमार आर्य
लेख अच्छा है.लेकिन इसका पाठ करने से लाभ क्यों होता है, इस पर भी प्रकाश डालिए.
धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी है। जीव वा जीवात्मा अथवा मनुष्य सत्चित, एकदेशी, अल्पज्ञ, ससीम, ईश्वर से व्याप्य एवं आनंद से रहित है। यह अपने पूर्व व इस जन्मों के कर्मों के फलों में फसा हुआ है जिससे परमात्मा इसे कर्मानुसार सुख व दुःख देता है। ईश्वर सृष्टि एवं सभी ऐश्वर्यों का स्वामी है तथा जीव ऐश्वर्य का एक उपभोक्ता है। ईश्वर की प्रार्थना, स्तुति व उपासना से जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते है एवं ईश्वर के समान होने आरम्भ हो जाते हैं जैसे अग्नि के पास जाने से शरीर गर्म व शीतल जल के पास जाने से शरीर शीतल होता है। जिस प्रकार पिता अपनी अधिकारी व पात्र संतान को अपना धन व संपत्ति देता है उसी प्रकार ईश्वर जीवात्मा रूपी अपनी संतान को पात्रता के अनुसार अपने ऐश्वर्य का दान करता है। यह पात्रता ही प्रार्थना, स्तुति व उपासना से प्राप्त होती है। धन्यवाद।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
हर्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।