ईश्वर से प्रार्थना क्या, क्यों व कैसे?
ओ३म्
प्रार्थना एक प्रकार की विनती है जो हम किसी वस्तु को किन्हीं दूसरों से मांगने के लिए करते हैं। ईश्वर संसार में सबसे बड़ी, शक्तिशाली, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक गुणों वाली सत्ता है। हम उससे बुद्धि, ज्ञान, शक्ति व बल, धन व ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना कर सकते हैं और वह हमें प्राप्त भी हो सकती हैं। प्रार्थना क्यों करें, इसका सरल उत्तर है कि हम अल्पज्ञ अर्थात् अल्प व न्यून ज्ञान वाले हैं, बल व शक्ति में भी न्यून, धन व ऐश्वर्य में भी न्यून हैं अतः इनकी प्राप्ति के लिए हमारे पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। हम कह सकते हैं कि हम पुरुषार्थ कर यह वस्तुयें प्राप्त कर सकते हैं, यह उत्तर कुछ ठीक भी है, पुरुषार्थ तो हमें करना ही है, इसके लिए भी यदि हम ईश्वर से प्रार्थना करें तो हमें अपने मनोरथ पूर्ण करने में ईश्वर से सहायता प्राप्त हो सकती हैं। यह भी हमें ज्ञात होना चाहिये कि संसार में जो भी ऐश्वर्य व धन आदि पदार्थ हैं, उनका स्वामी एकमात्र ईश्वर ही है। हमें पुरूषार्थ करने पर यह वस्तुयें प्रयोग करने के लिए प्राप्त होती है। यदि हम इन वस्तुओं व धन आदि में लिप्त होते हैं या इनसे मोह करते हैं, तो यह हमारे पतन का कारण होता है। यदि हम ईश्वर से प्रार्थना न करें जो कि गुरूओं का भी गुरू और माता-पिता-आचार्य के समान है तथा इनसे भी बड़ा और हमारे लिए हित व कल्याणप्रद है, तो ऐसा न करने का कोई कारण नहीं है। ऐसा न करना हमारा अज्ञान व मूर्खता ही होगी। बिना माता-पिता की सहायता के हमारा जन्म नहीं हो सकता और न हि उनके पोषण के बिना हम ज्ञान, बल व शक्ति अर्जित कर सकते हैं। संसार का यह समस्त ज्ञान परमात्मा का ही है। परमात्मा ने ही इस सृष्टि को बनाया है और हमें व संसार के सभी प्राणियों को माता-पिता द्वारा जन्म दिया है। सभी सुख के साधन भी परमात्मा के द्वारा हमारे लिए बनायें गये हैं। हमें इन साधनों का आवश्यकतानुसार त्यागपूर्वक उपयोग करने का ही अधिकार है। हमारा अपना, यहां तक की हमारा शरीर भी, हमारा नहीं है। यह ईश्वर व हमारे माता-पिता की हमें निःस्वार्थ देन व भेंट हैं। हमें इन सबके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहना है। जो ऐसा नहीं करता वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं होता।
प्रार्थना कैसे करें? इसका सरलतम् उपाय है कि प्रातःकाल व सायंकाल शौच से निवृत होकर अपने निवास के किसी एकान्त व शान्त स्थान में पद्मासन व सुखासन आदि आसन लगाकर कुछ देर वैदिक मान्यताओं के सत्यार्थ प्रकाश व आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का पाठकर अपने मन व सभी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर परमात्मा के चिन्तन व ध्यान में लगाना चाहिये। जहां हम ध्यान में बैठकर ईश्वर के गुणों व उसकी कृपा व देनों का चिन्तन करें, वहीं हम निम्न मंत्रों से अर्थ सहित प्रार्थना करें। कुछ मन्त्र प्रस्तुत हैं:
ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीय्र्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः। (तैत्तिरीय आरण्यक 9/1)
ओ३म् विश्ववानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। (यजुर्वेद 30/3)
ओ३म् यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।1।।
ओ३म् यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूद्र्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।32।।
ओ३म् यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः। अग्निं यश्चक्र आस्यं तंस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।33।।
ओ३म् यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरगिंरसोभवन। दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।34।। (अथर्ववेद 10/33/4 मन्त्र 1, 32-34)
इन सभी मन्त्रों के अर्थ जानने योग्य हैं। मन्त्र का पाठ करते समय मन्त्र के अर्थ भी हमारे मन में उपस्थित होने चाहिये। मन्त्रों के अर्थ क्रमशः निम्न हैं:
सह नाववतु मन्त्र का भाषार्थः- हे सर्वशक्तिमन् ईश्वर ! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें। हम सब लोग परम प्रीति से मिल के आपके अनुग्रह से सबसे उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री को सदा भोगें। हे कृपानिधे ! आपके सहाय से हम लोग एक-दूसरे के सामथ्र्य को पुरूषार्थ से सदा बढ़ाते रहें और हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर ! आपके सामथ्र्य से ही हम लोगों का पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा बढ़ती रहे, हे प्रीति के उत्पादक ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक-दूसरे के मित्र होके सदा वत्र्तें। हे भगवन् ! आपकी करूणा से हम लोगों के तीन ताप–एक ‘आध्यात्मिक’ जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा ‘आधिभौतिक’ जो दूसरे प्राणियों से दुःख होता है, और तीसरा ‘आधिदैविक’ जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चंचलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये। इसके पश्चात हम जिस कार्य में ईश्वर की सहायता चाहते हैं उसका उल्लेख कर उसकी सफलता के लिए प्रार्थना करें और कहें कि हमारा इस कार्य से हमें व सब मनुष्यों का उपकार हो। यही आपसे चाहते हैं, सो कृपा करके हम लोगों को सहाय कीजिये।
विश्वानि देव मन्त्र का भाषार्थः- हे सत्यस्वरूप ! हे सदानन्दस्वरूप ! हे अनन्तसामथ्र्ययुक्त ! हे परमकृपालो ! हे अनन्तविद्यामय ! हे विज्ञानविद्याप्रद ! हे परमेश्वर ! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हैं तथा सब आनन्दों के देने वाले हैं, हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन् ! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, हमारे जो सब दुःख हैं उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप दूर कर दीजिये, अर्थात् हमसे उनको और हमको उनसे सदा दूर रखिये, और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिए सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है–एक जो सत्य विद्या की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्तिराज्य इष्ट-मित्र-धन-पुत्र-स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस् सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं और जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं, उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त कीजिये।
यो भूतं च मन्त्र का भाषार्थः- जो परमेश्वर एक भूतकाल, जो व्यतीत हो गया है, दूसरा जो वर्तमान है, और तीसरा जो होने वाला भविष्यत् कहलाता है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है उन सब व्यवहारों को वह यथावत् जानता है, तथा जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, रचता, पालन, प्रलय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, जिस का सुखरूप ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार के सुख का भी देने वाला है, ज्येष्ठ अर्थात् सबसे बड़ा सब सामथ्र्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। जो कि सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो।
यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् मन्त्र का भाषार्थः जिस परमेश्वर के ज्ञान में भूमि जो पृथिवी आदि पदार्थ हैं, सो प्रमा अर्थात् यथार्थ ज्ञान की सिद्धि होने का दृष्टान्त है, तथा जिसने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है, और जिसने अपनी सृष्टि से ‘दिव’ अर्थात् प्रकाश करने वाले पदार्थों को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है, अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच कर उसमें व्यापक होकर, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सबको धारण कर रहा है, उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्र मन्त्र का भाषार्थः जिसने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को किया है, जो कल्प-कल्प के आदि में सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारम्वार नये-नये रचता है, और जिसने मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है, उसी ब्रह्म को हम लोगों का नमस्कार हो।
यस्य वातः प्राणापानौ मन्त्र का भाषार्थः- जिसने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान के जैसा बनाया है, तथा जो प्रकाश करने वाली सूर्य-किरणें हैं, वह चक्षु की भांति जिसने की हैं, अर्थात् उनसे ही रूप ग्रहण होता है, और जिसने सब व्यवहारों को सिद्ध करने वाली दश दिशाओं को बनाया है, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, उस ब्रह्म को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्यछायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै दवाय हविषा विधेम।। (यजुर्वेद 25/13)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवीः शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिब्र्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। (यजुर्वेद 36/17)
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू। शन्नः कुरू प्रभाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। (यजुर्वेद 36/22)
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। यस्मिश्चितं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पस्तु।। (यजुर्वेद 34/5)
य आत्मदा बलदा मन्त्र का भाषार्थः- जो जगदीश्वर अपनी कृपा से ही अपनी आत्मा का विज्ञान देने वाला है, जो सब विद्या और सत्य सुखों की प्राप्ति करानेवाला है, जिसकी उपासना सब विद्वान् लोग करते आये हैं, और जिसका अनुशासन जो वेदोक्त शिक्षा है उसके अत्यन्त मान्य से सब शिष्ट लोग स्वीकार करते हैं, जिसका आश्रय लेना ही मोक्षसुख का कारण है और जिसकी अकृपा ही जन्म-मरणरूप दुःखों को देने वाली है, अर्थात् ईश्वर और उसका उपदेश जो सत्यविद्या, सत्यधर्म और सत्यमोक्ष हैं, उनको नहीं मानना, और जो वेद से विरुद्ध होके अपनी कपोलकल्पना अर्थात् दुष्ट इच्छा से बुरे कामों में वत्र्तता है, उस पर ईश्वर की अकृपा होती है, वही सब दुःखों का कारण है, और जिसकी आज्ञापालन ही सब सुखों का मूल है, जो सुखस्वरूप और सब प्रजा का स्वामी है उस परमेश्वर देव की प्राप्ति के लिये सत्य-प्रेम-भक्तिरूप सामग्री से हम लोग नित्य भजन करें, जिससे हम लोगों को किसी प्रकार का दुःख कभी न हो।
द्यौः शान्ति मन्त्र का भाषार्थः- हे सर्वशक्तिमन् भगवन् ! आपकी भक्ति और कृपा से ही ‘द्यौ’ जो सूर्यादि लोकों का प्रकाश और विज्ञान है यह सब दिन हमको सुखदायक हो, तथा जो आकाश, पृथिवी, जल, ओषधि, वनस्पति, वट-वृक्ष आदि, जो संसार के सब विद्वान, ब्रह्म जो वेद, ये सब पदार्थ और इनसे भिन्न भी जो जगत् है वे सब हमको सब काल में सुख देने वाले हों जिससे कि सब पदार्थ सब दिन हमारे अनुकूल रहें। हे भगवन् ! इस सब प्रकार की शान्ति से विद्या, बुद्धि, विज्ञान, आरोग्य और सब उत्तम सहाय को अपनी कृपा से हमको दीजिये तथा हम लोगों और सब जगत् को उत्तम गुणों और सुखों के दान से बढ़ाइये।
यतो यतः समीहसे मन्त्र का भाषार्थः- हे परमेश्वर ! आप जिस-जिस देश में जगत् की रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं उस-उस देश से हम लोगों को भय से रहित करिये, अर्थात् किसी देश से हमको किंचित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं उनको आपके अनुग्रह से हम लोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं वे सुख से हमें सिद्ध हों।
यस्मिन्नृच साम मन्त्र का भाषार्थः- हे भगवन् कृपानिधे ! ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और इन तीनों के अन्तर्गत होने से अथर्ववेद भी, ये सब जिसमें स्थित होते हैं, तथा जिसमें मोक्ष विद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और सत्यासत्य का प्रकाश होता है, जिसमें सब प्रजा का चित्त जो स्मरण करने की वृत्ति है सो सब गंठी हुई है, जैसे माला के मणि एक सूत्र में गंठे हुए होते हैं, और जैसे रथ के पहिये के बीच भाग में आरे लगे होते हैं कि उस काष्ठ में जैसे अन्य काष्ठ लगे रहते हैं, ऐसा जो मेरा मन है सो आपकी कृपा से शुद्ध हो, तथा कल्याण जो मोक्ष और सत्यधर्म का अनुष्ठान तथा असत्य के परित्याग करने का संकल्प जो इच्छा है, इससे युक्त सदा हो। हम अपने मन से आपके दिये हुए वेदों के सत्य अर्थों का यथावत् प्रकाश प्राप्त कर जीवन को सफल करें।
लेख में प्रार्थना क्या है, किस लिए है व इसे कैसे करना है, इन प्रश्नों के उत्तर आ गये हैं। यदि उपर्युक्त मन्त्रों से नियमित रूप से ईश्वर से प्रार्थना करेंगे तो ईश्वर उसे यथासमय अवश्य पूरी करेगें, यह विश्वास हमारे मन में होना चाहिये। आईये, अपने जीवन को सफल करने के लिए हम ईश्वर प्रदत्त वेद मन्त्रों से प्रार्थना करें और उसकी छत्रछाया में निश्चिन्त जीवन व्यतीत करें।
मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख. इश्वर प्रार्थना से मन को बहुत शांति और शक्ति मिलती है. यह कोई साधारण लाभ नहीं है, क्योंकि लोगों के पास सब कुछ होते हुए भी शान्ति नहीं है. अगर वे मन से प्रार्थना करें तो अवश्य शान्ति मिलेगी. पर अधिकांश लोग प्रार्थना की खानपूरी करके भागते हैं.
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपकी टिप्पणी से पूर्णतः सहमत हूँ। ईश्वर में अनंत सुख व शांति अथवा आनंद है। इसी कारण ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना करने से सुख, शांति व आनंद की प्राप्ति होती है।
मनमोहन जी ,लेख अच्छा लगा .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह भमरा जी। आपने लेख पढ़ा और पसंद किया, इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ।