भैंस कहीं की
हरी घास चरने गयी थी गर्मियों में
कहीं गंदे गड्ढे में गिर कर आयी है
नहीं सुधरेगी नासमझ भैंस कहीं की
किन खेतों की हरियाली हर आयी है ||
गिलौरी घास का, खा पगुरी करती है
थुथुना फूला, घर वालों को घूरती है
गोरस की आस में, तकते लोंग तुझे
रुक अवगुणी, नाहक तमाशा करती है ||
अब कितने मजबूत, खूंटे से बांधूं तुझे
बिना दूध-दही, किसके लिए सांधुं तुझे
डर, कहीं कसाई के हाथ न लग जाए
इस लिए रोज ला, तबेले में नाथुं तुझे ||
घर से निकलती है, संग एक नाम लिए
दर-दर भटकती है, किसका पैगाम लिए
झुण्ड में, अलग ही लगती है जालिम
सरेयाम थिरकती है, दर्द कुंहराम लिए ||
पिपासे को, दुग्धामृत चखाने वाली
मडिया में, जन्नत खिलाने वाली
बहुत हैं तेरे नखरें उठाती रियाया
रुक रे रसवंती, चोका पिलाने वाली ||
महातम मिश्र
ha ha ha mahatam ji raswanti bkhaan bahot badiya ..
सादर धन्यवाद प्रीती दक्ष जी, पटल पर आते ही आप को हंसी आई मै खूब खुश हुआ, आभार महोदया, व्यंग तो व्यंग है…….हा हा हा हा हा
बहुत अच्छी लगी .
सादर धन्यवाद अग्रज गुरमेल सिंह जी, कोशिश रहेगी कि आप लोगों के दिन में जगह बना लूँ, आभार…….
भैंस के माध्यम से बहुत करारा व्यंग्य !
सादर धन्यवाद विजय कुमार सिंघल जी, यह व्यंग आप को पसंद आया, लिखना सार्थक हुआ मान्यवर……