कविता

भैंस कहीं की

हरी घास चरने गयी थी गर्मियों में

कहीं गंदे गड्ढे में गिर कर आयी है

नहीं सुधरेगी नासमझ भैंस कहीं की

किन खेतों की हरियाली हर आयी है ||

गिलौरी घास का, खा पगुरी करती है

थुथुना फूला, घर वालों को घूरती है

गोरस की आस में, तकते लोंग तुझे

रुक अवगुणी, नाहक तमाशा करती है ||

अब कितने मजबूत, खूंटे से बांधूं तुझे

बिना दूध-दही, किसके लिए सांधुं तुझे

डर, कहीं कसाई के हाथ न लग जाए

इस लिए रोज ला, तबेले में नाथुं तुझे ||

घर से निकलती है, संग एक नाम लिए

दर-दर भटकती है, किसका पैगाम लिए

झुण्ड में, अलग ही लगती है जालिम

सरेयाम थिरकती है, दर्द कुंहराम लिए ||

पिपासे को, दुग्धामृत चखाने वाली

मडिया में, जन्नत खिलाने वाली

बहुत हैं तेरे नखरें उठाती रियाया

रुक रे रसवंती, चोका पिलाने वाली ||

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

6 thoughts on “भैंस कहीं की

  • प्रीति दक्ष

    ha ha ha mahatam ji raswanti bkhaan bahot badiya ..

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद प्रीती दक्ष जी, पटल पर आते ही आप को हंसी आई मै खूब खुश हुआ, आभार महोदया, व्यंग तो व्यंग है…….हा हा हा हा हा

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी लगी .

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद अग्रज गुरमेल सिंह जी, कोशिश रहेगी कि आप लोगों के दिन में जगह बना लूँ, आभार…….

  • विजय कुमार सिंघल

    भैंस के माध्यम से बहुत करारा व्यंग्य !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद विजय कुमार सिंघल जी, यह व्यंग आप को पसंद आया, लिखना सार्थक हुआ मान्यवर……

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