गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

उनको अपनी अक्ल पर गफलत पुरानी है तो है ।
बे वजह सी बात पर जहमत बुलानी है तो है ।।

है जिन्हें हैवानियत से फिर मुहब्बत बे पनाह ।
उनको चादर फिर किसी तुरबत चढ़ानी है तो है ।।

खा गए जो मुल्क की दौलत सरे बाजार में ।
भूख की बाकी बची हसरत मिटानी है तो है ।।

राम अल्ला और जीसस एक हैं सबको खबर ।
साजिशो के वास्ते नफ़रत चलानी है तो है ।।

जेल में है वह दरिंदा जिसकी दहशत बेशुमार।
हर गली में कुछ न कुछ सोहबत निशानी है तो है।।

कुर्सियां उसकी ही होंगी था भरोसा ये उसे ।
आज फिर उसकी जुबां फुरकत कहानी है तो है ।।

मंदिर-ओ-मस्जिद से जाते रास्ते भी मैकदे ।
इस तरह कुछ यार के निसबत पिलानी है तो है ।।

हक कभी मांगा तो दुश्मन ख़ास का ओहदा मिला।
रहनुमाओं को यहां फितरत दिखानी है तो है ।।

– नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक [email protected]

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी ग़ज़ल !

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