कहानी

कहानी : अपना शहर

मुख्‍य शहर से तनिक दूर परंतु यातायात के साधनों द्वारा अच्‍छी तरह जुड़ी हुई यह नयी मानव बस्‍ती शीघ्र ही मध्‍यमवर्गीय परिवारों की पसंदीदा जगह बन गयी। वाजिब दाम में दो-तीन कमरों के फ्लैट मिल जाते थे। कुछेक सम्‍पन्‍नतर लोगों ने पूरा प्‍लॉट लेकर कोठी बनवायी। एक समय ऐसा भी आया जब कारों की तादाद में बेहताशा वृद्धि ने सड़क के किनारे पार्किंग की कमी की समस्‍या खड़ी कर दी। एक-दूसरे से अनजान लोग कुछ समय तक संगठित कदम नहीं उठा पाए। परंतु जब दो-तीन गाडि़यॉ चोरी हुई और कुछ अन्‍य के पार्ट-पुर्जे गायब हो गए तो भयभीत मध्‍यम वित्‍त परिवारों ने चंदा करके कॉलोनी के मुख्‍य द्वारों पर लोहे का गेट लगवा लिया। हर गेट पर एक छोटी सी कोठरी बनवायी जिसमें अन्‍दर बैठा या बाहर टहलता संतरी लोगों और उनके माल की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया। रात में कमर में टार्च बॉधे,जोर से सीटी बजाता एवं बीच-बीच में जमीन पर लाठी पटकता संतरी बिस्‍तर पर आराम से लेटे बाशिंदों को यह अहसास दिलाता कि वे एक हद तक महफूज हैं।

किशनलाल और रामदीन संतरी के रुप में अपनी ड्यूटी बजाते थे। किशनलाल रामदीन की तुलना में थोड़ा युवा था। पर दोनों जीर्ण-शीर्ण शरीर के स्‍वामी थे। चार बदमाश आ गए तो इस काया के दम पर वे निपट पाएगें इसमें संदेह था। रामदीन ढ़लान की ओर अग्रसर व्‍यक्ति था। चेहरे पर घनी मॅूछें उसके व्‍यक्तित्‍व को अपनी ओर से रुआबदार बनाने का प्रयत्‍न करती थी। परंतु ढ़ीली-ढ़ाली चाल,उड़ी हुई रंगत और अभावजन्‍य हीनता का भाव मूछों के एकाकी प्रयास को निष्‍फल करते थे। जैसा कि पहले उल्‍लेख किया जा चुका है वह अशक्‍त शरीर का था। अपनी आंगिक शिथिलता की अनुभवजन्‍य संपदा से भरपाई करने की कोशिश करता। किशनलाल को अपेक्षाकृत युवा होने का लाभ था परंतु इससे पूर्व वह दो जगह नौकरी से छॅटनी में निकाला जा चुका था। घर पैसा भी भेजना पड़ता था। पत्‍नी और बच्‍चों का भार वहन करना था। ऋणग्रस्‍त भी था। इसलिए बहुत अधिक लाभ की स्थिति उसकी भी नहीं थी। यदि दोनों के तन पर सिक्‍युरिटी गार्ड की वर्दी,कमर में पुरानी ही सही एक बेल्‍ट न होती तो वे रेड़ी और खोमचे वालों से ज्‍यादा भिन्‍न न दिखते जिन्‍हें वे अब अधिकारपूर्वक यहॉ प्रवेश करने से रोकते थे।

कॉलोनी के एक छोर पर अभी भी ताड़ के कुछ पेड़ खड़े थे। रामदीन बताता था कि पहले ढ़ेर सारे पेड़ थे जो बस्‍ती के फैलाव के साथ कटते गए। इन पर बया के खूबसूरत घोंसले लटकते रहते। ”अब तूझे गौरेया भी मुश्किल से देखने को मिलेगी।” ताड़ के इन्‍हीं पेड़ों के पास एक बड़ा और घना अनाम पेड़ था। उसपर काफी ऊचाई पर मधुमक्खियों का बड़ा सा छत्‍ता लगा था। मधुमक्खियों ने काफी परिश्रम से शहद एकत्रित किया था।

दिन में ठेले-रेहड़ी वालों को आने-जाने की इजाजत थी। कभी-कभार एक शहद बेचने वाला टोकरी लेकर टहलता मिलता। लोग उसके सामान को शक  की नजर से देखते। कहीं नकली न निकले। पर कुछेक ने सीमित परिमाण में खरीदा। उसकी गुणवत्‍ता से संतुष्‍ट हुए। किशनलाल और रामदीन ने भी देखा देखी में मोल तोल शुरु किया। बातचीत के दरम्‍यान दोनों ने यह जाना कि शहद वाला उन्‍हीं के तरफ का है। इस पर खुश होकर किशनलाल ने बीड़ी सुलगायी और एक उसे भी दी। ”अपने साइड के हो तो क्‍या मोल भाव करना। क्‍वालिटी एकदम फस्‍ट क्‍लास मिलेगी।” शहद वाले ने दोनों को आश्‍वस्‍त किया। शहर में कतिपय परिचित ध्‍वनियॉ,जाना पहचाना उच्‍चारण तथा द्दश्‍य व्‍यक्ति को गॉव-कस्‍बा विस्‍मृत नहीं होने देता है। किशनलाल याद करने लगा कि गिलास से पानी पिए कितना समय व्‍यतीत हो गया है। बोतल से पानी पीते हुए अभी भी वह कपड़ों पर पानी गिरा लेता था। रामदीन ने बताया कि वह कभी लोटे से पानी पिया करता था। अब लोटा केवल देवता को जल चढ़ाने के कार्य में प्रयुक्‍त होता है।

”एक दिन सब जान पहचान वालों को बुलाकर चाय-नाश्‍ता हो जाए। पेट भर बात करेगें।” किशनलाल ने चहक कर प्रस्‍ताव रखा। रामदीन ने सर हिलाकर सहमति दी।

”शहद बेचने वाले को भी बुलाते हैं।…पर क्‍या वह आएगा?” किशनलाल की शंका जायज थी। एकाध मुलाकात में कोई किसी से क्‍या अपेक्षा करेगा। रामदीन बोला,”बुलाने में जजबात भरे हो तो पत्‍थर भी बोल पड़ते हैं।”

रात में लाठी पटकता किशनलाल जोश में आ जाता। तैश में सड़क के किनारे लेटे कुत्‍तों पर टार्च की लाइट मारकर हुश-हुश करके उन्‍हें खदेड़ने की चेष्‍टा करता। सड़क रात बढ़ने के साथ निरन्‍तर सुनसान होती जाती। ”कोई दिख नहीं रहा…।” उसने सामने से आ रहे रामदीन से कहा।

”ऐसा न कहो बच्‍चू।” वह सुरती को मॅुह के अन्‍दर उचित स्‍थल पर रखकर बोला। ”कहीं से भी चोर-उचक्‍के टपक पड़ेगें। फिर क्‍या करोगे?”

”अजी वे अकेले-दुकेले थोड़े न आएगें। और आएगें भी तो औजार के साथ रहेगें। हम क्‍या कर लेगें… ?” किशनलाल अपने होने की निस्‍सारता पर स्‍वयं प्रश्‍न उठाने लगा। इस पर रामदीन ने उस बियावान में भी इधर-उधर देखा और कहा,”चुप रहो,यह नौकरी हमारी रोटी है। हमें कुछ सोचकर ही साहब लोगों ने लगाया है। याद करो पहले तुम कहॉ थे और किस हाल में…। जब कंपनी से निकाले गए तो महीने भर घर की हालत कैसी थी।” उसकी इन व्‍यवहारजन्‍य बातों के सम्‍मुख किशनलाल भी तार्किकता का पथ पकड़ने को बाध्‍य हो गया।

”हॉ चलो ठीक है। नौकरी ऐसी बुरी भी नहीं।”

रामदीन ने अपने अनुभव का उत्‍खनन करते हुए बताया कि वह एक दफा अपने परिचित के साथ किसी बड़े होटल में गया था। परिचित वहॉ काम करता था। ”पहाड़ जैसे ऊचे दो-दो संतरी दरवाजे पर तैनात रहते। बड़ी-बड़ी घनी मॅूछें। पुराने राजा-महाराजाओं वाले कपड़े पहने। सभी को झुककर सलाम करते। अंदर पहॅुचे तो दोस्‍त ने जो मर्जी हुई वह खिलाया। फर्श और दीवालें इतनी साफ कि शक्‍ल देखकर दाढ़ी बना लो।”

किशनलाल इस बारे में कुछ भी नहीं जानता था इसलिए वह सो तो है कहकर अपनी झेंप मिटा रहा था।

बातें करते हुए दोनों लोहे के गेट पर आ गए। मुख्‍य सड़क के दूसरी ओर कुछ झुग्गियॉ थीं जिनमें रहने वाले रिक्‍शा-ठेला चलाते थे। उनकी स्त्रियॉ इस कॉलोनी के घरों में काम वाली के तौर पर आती थीं। परंतु फिर भी इस इलाके के बाशिंदे इन झुग्गियों के फैलाव को संशय से देखते। उनके द्वारा फैलाई गन्‍दगी पर वितृष्‍णा से मॅुह बिचकाते। गेट पर बनी कोठरी में से दो स्‍टूल निकाल कर वे बाहर बैठ गए। दोनों ने बीड़ी सुलगा ली। धुए से आच्‍छादित माहौल में वे हॅस-हॅस कर बातें कर रहे थे। ऐसा आत्‍मीय वातावरण उपलब्‍ध हुए एक अरसा बीत गया था। इस स्थिति में अगर कोई कोठी या फ्लैट वाला उन्‍हें देखता तो शायद टोकता। एक बार खाली घूमते एक बूढ़े ने इन्‍हें आपस में बतियाते देखकर डॉट लगाते हुए अपने कर्तव्‍य का भली प्रकार निर्वाह करने को कहा था। हालॉकि ऐसे जागरुक नागरिकों की संख्‍या अधिक नहीं थी। परंतु फिर भी इसका खटका तो रहता ही है। घुप अंधेरे में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति की आशंका कम थी।

पैरों के पास जमीन पर गिरे बीड़ी के अधजले टुकड़ों व माचिस की बुझी तीलियों ने एक परिचित द्दश्‍य बना दिया। भौंकते कुत्‍ते सन्‍नाटा भंग करने वाले एकमात्र तत्‍व थे। एक दिन किसी कोठी से एक युवा महिला ने किशनलाल को बुलाकर पैसा देकर दूकान से कुछ सामान मॅगवाया। रामदीन इसकी याद दिलाकर उससे मजाक करने लगा था। वह फीकी मुस्‍कान भर कर रह गया। रामदीन को लगा कि विषय के अनुरुप उसकी प्रतिक्रिया पर्याप्‍त नहीं थी। ”तू बड़ी जल्‍दी बूढ़ा हो गया।” आखिरकार उसने बीड़ी फेंककर बात का पटाक्षेप किया।

दूर कार की हेडलाइट देखकर वे सतर्क हुए। सूट-टाई से सुसज्जित एक पुरुष को ड्राइविंग सीट पर देखकर वे तत्‍परता से गेट खोलने लपके। पुरुष के मुख पर दर्प के भाव थे। वे उसे मुस्‍तैदी से सलाम कर बगल हो गए।

कार सन्‍न से गुजर गयी। शानदार कपड़े में लिपटा इंसान रोबीला बन जाता है। अंदर क्‍या बीमारी है,कर्जदार है या धनाठ्य क्‍या पता। उनकी नजरों में वह काफी ऊचा था।

सुबह रामदीन ने किशनलाल को झकझोर कर जगाया। वह चौंक कर उठा। ”कौन सी आफत आ गयी गुरु?”

”अब उठोगे या मुर्दे की तरह पड़े रहोगे? यहॉ एक कार का स्‍टीरियो चोरी हो गया।” वह हड़बड़ा कर एकदम खड़ा हो गया। थोड़ी दूर पर मजमा जमा था। एक महिला रात में बॉलकनी मे निकली तो देखा कि दो लोग एक कार के अंदर कुछ खोलने की कोशिश कर रहे हैं। जब उसने आवाज लगायी तो वे बड़े आराम से बगल में खड़ी अपनी कार में बैठ कर चले गए मानो किसी के घर आए सम्‍मानित अतिथि हो। सारे औजार होगें ही उनके पास। हाइटेक चोर ठहरे।

”तुम सब क्‍या कर रहे थे?” भारी शरीर के एक जींसधारी युवक ने देशज भाषा में उन दोनों को अपशब्‍द कहते हुए कड़कते स्‍वर में पूछा। उसका साथ निभाने एक अन्‍य व्‍यक्ति ने आक्रोशमय लहजे में कहा। ”हराम की खाने की बीमारी लग गयी है तो कहो एक झटके में दूर कर देता हॅू।” सफाई देने पर डॉट और संभवत: मार की आशंका बढ़ेगी इसलिए अनुभवी रामदीन ने किशनलाल का हाथ दबाया। ”’निकालो न सूअरों को।” लोगों का स्‍वर समवेत होने लगा। आज स्‍टीरियो गायब हुआ है कल घर में कुछ हो जाए तो क्‍या करेगें। अन्‍तत: कुछ बुजुर्गो ने तेवर शान्‍त करने का सत्‍परामर्श देते हुए पुलिस को खबर करने को कहा।

सड़क पर जमी महफिल का समापन एक समझदार मनुष्‍य ने यह कहकर कराया कि हमारी सिक्‍यूरिटी इन प्‍यादों के भरोसे संभव नहीं है। ये चोर-बदमाश पुलिस के जाने पहचाने हैं। उन्‍हीं की सांठ-गांठ से अपना धंधा चला रहे हैं। वरना मजाल है कि इस पोश कॉलोनी में ऐसी घटना हो जाए। ज्‍यादातर लोग इससे सहमत नजर आए।

दिन भर किशनलाल उदास रहा। रामदीन भी दुखी था। पर वह इस अवस्‍था में भी अपने साथी को समझाने का प्रयास कर रहा था।

सुबह-सुबह बच्‍चों की स्‍कूल बसें गेट के अन्‍दर आयी थीं। एक बस के अन्‍दर कुछ मधुमक्खियॉ घुस गयीं। बच्‍चे अचरज से इन प्राणियों को देखने लगे। खिड़की के शीशे बन्‍द होने के कारण मधुमक्खियॉ भीतर फॅस गयीं। उनके यत्र-तत्र सस्‍वर चक्‍कर काटने से जू-जू की ध्‍वनि निकल रही थी। तभी वहॉ मौजूद दो-चार अभिभावकों ने इस नजारे पर गौर किया वे बच्‍चों की कुशलता के प्रति चिन्तित हो उठे। ”ड्राइवर जल्‍दी से खिड़की खोलो।” एक छोटे बालों वाली महिला तत्‍क्षण चिल्‍लायी। एक अन्‍य स्‍त्री ने ऊपर उॅगली इंगित करके वह स्‍थान दिखलाया जहॉ छत्‍ता विद्यमान था। वहॉ उपस्थित पुरुषों ने संयम से काम लेते हुए यह निश्‍चय किया कि नगर-निगम से बात करके इस बीमारी का इलाज ढूढ़ते हैं।

लोग वास्‍तव में कर्मठ थे। करने पर आ जाते तो शीघ्र ही सकारात्‍मक परिणाम प्रस्‍तुत कर देते। अगले दिन ही किसी पहॅुच वाले सज्‍जन ने अपनी पहचान का लाभ उठाकर कर्मचारियों को बुलवाया और उन्‍होंने अत्‍यन्‍त वैज्ञानिक विधि से गैस द्वारा मधुमक्खियों की बस्‍ती का वही हाल किया जो परमाणु बम से हिरोशिमा व नागासाकी का हुआ था। सहस्‍त्रों मधुमक्खियॉ इस आधुनिक अस्‍त्र के सम्‍मुख सभ्‍यता से दूर एकाकी टापू में रहने वाले आदिम निवासियों की तरह बेमौत मारी गयीं। उनके अवशेष सड़क पर लोगों के लिए कूड़े के ढ़ेर के सिवा कुछ नहीं था। बस कुछ बच्‍चे इस द्दश्‍य को दुखपूर्वक निहार रहे थे। उनकी माताऍ उन्‍हें समझा कर या डॉट कर वहॉ से दूर ले जा रही थीं।

 

शाम को ड्यूटी पर आने पर किशनलाल ने देखा कि उसका परिचित शहद वाला टोकरी उठाए अंदर आ रहा है। ”ऐई क्‍या है… ? क्‍यों अंदर घुसे जा रहे हो?” वह एकदम चिल्‍ला पड़ा। शहद वाला अचकचा गया। आखिर क्‍या बात हुई कि वह उसे पहचान नही रहा है।

”बहुत अच्‍छा माल है। चखोगे?” उसने सर पर से टोकरी उतारने का उपक्रम किया।

”दॅूगा दो हाथ कि अंजर-पंजर ढ़ीले हो जाएगें। यह सारी चालाकी धरी रह जाएगी।” किशनलाल सहसा हिंस्‍त्र पशु की भॉति गरजा। शहद वाला सहम कर दो पग पीछे हो गया। ”चलो भागो यहॉ से। अपनी दूकान कहीं और लगाना। इधर आए तो ठीक नहीं होगा। बता देता हॅू।” वह बेहद अशिष्‍ट और आक्रामक हो गया था। उसे लगता था कि इन अवसरों पर ऐसा ही होना चाहिए। उसकी यह मुद्रा और हाथ में तनी लाठी देखकर शहद वाले को यह कहने की हिम्‍मत नहीं पड़ी कि अरे भाई गर्म क्‍यों हो रहे हो, जाता हॅू। पीछे से शोर सुनकर रामदीन तेज कदमों से आया।

”देखो न भईया न जाने क्‍यों गुस्‍सा हैं?” उसकी उपस्थिति में साहस बटोर कर शहद वाला चापलूसी भरे अंदाज में बोला। ”अरे जाओ….दिमाग न खराब करो।” रामदीन ने लाठी नहीं फटकारी पर उसका आत्‍मीयता विहीन व्‍यवहार शहद वाले को किशनलाल की फौजदारी वाले अंदाज से भी बुरा लगा। वह लौट गया।

उसके जाने के बाद दोनों ने पल भर के लिए एक दूसरे की ओर सरसरी द्दष्टि से देखा। उन्‍हें एक दूसरे की शक्‍ल नितान्‍त निरीह दिखी। वे अपने नाम में ईश्‍वर के अवतार का उल्‍लेख होने के बावजूद अत्‍यन्‍त शक्तिहीन लग रहे थे। किशनलाल सड़क के किनारे जमीन पर मॅुह नीचा करके उकडॅू बैठ गया। रामदीन पहले की तरह उसे दिलासा देने नहीं आया बल्कि थोड़ी दूरी पर गुमसुम खड़ा हो गया। दरअसल वह उसी पेड़ के नीचे खड़ा था जिस पर मधुमक्खियों को उनके छत्‍ते समेत नष्‍ट कर दिया गया था। ब्रह्मांड में कई प्रकाश वर्ष दूर हो रहे भीषण उथल-पुथल से बेखबर पृथ्‍वी बड़े सकून से अपनी कक्षा में सूर्य की परिक्रमा कर रही थी। संभ्रांत लोग बेकार की बातों से दूर प्रतिदिन की भॉति घर से निकले और अपने-अपने वृत्‍त की परिक्रमा में लग गए।

मनीष कुमार सिंह

जन्मइ 16 अगस्तm,1968 को पटना के निकट खगौल (बिहार) में हुआ। प्राइमरी के बाद की शिक्षा इलाहाबाद में। भारत सरकार, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में ‘नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्नथ पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्या,साक्षात्काौर,पाखी,दैनिक भास्कओर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्द्योग, ‍इत्यांदि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013) और ‘आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित। पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तवर प्रदेश। पिन-201010 मोबाइल: 09868140022 ईमेल: [email protected]

One thought on “कहानी : अपना शहर

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कहानी।

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