बुद्धि को शुद्ध कर ईश्वरीय प्रेरणा प्रदान कराने वाला गायत्री मन्त्र व उसका प्रामाणिक ऋषिकृत अर्थ
ओ३म्
गायत्री मन्त्र आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन में एक श्रेष्ठ वेदमन्त्र के रूप में विश्व में जाना जाता है। इसमें दी गई शिक्षा के मनुष्यमात्र के लिए कल्याणकारी होने के प्रति कोई भी मतावलम्बी अपने आप को पृथक नहीं कर सकता जैसा कि अनेक मामलों में देखने में आता है। आज हम पाठकों के लिए इसी प्रसिद्ध वेद मन्त्र जिसका कि रचयिता व उपदेष्टा इस संसार का रचने व चलाने वाला तथा मनुष्यों सहित प्राणीमात्र को जन्म देने व पालन करने वाला परमात्मा है, को संस्कृत व हिन्दी में अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। पहले मन्त्र को इसके सभी पदों व शब्दों सहित देख लेते हैं।
गायत्री मन्त्रः ओ३म् भूर्भुवःस्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। घियो यो नः प्रयोदयात्।।
गायत्री मन्त्र में प्रथम जो (ओ३म्) है यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सवार्वेत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक ओ३म् नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट्, अग्नि और विश्ववादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। वेदादि सत्यशास्त्रों में इसका ऐसा ही स्पष्ट व्याख्यान किया गया है। तीन महाव्याहृतियों ‘भूः, भुवः स्वः’ के अर्थ भी संक्षेप से कहते हैं। – ‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है, उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीवन सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक ग्रन्थ के हैं।
(सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’ जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है। (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
गायत्री मन्त्र का सरल संस्कृत में भावार्थः ‘हे परमेश्वर ! हे सच्चिदानन्दस्वरूप ! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ! हे अज निरंजन निर्विकार ! हे सर्वान्तर्यामिन् ! हे सर्वाधार जगत्पते सकलजगदुत्पादक ! हे अनादे ! विश्वम्भर सर्वव्यापिन् ! हे करूणामृतवारिधे ! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर्वरेण्यं भर्गोऽस्ति तद्वयं धीमहि दधीमहि ध्यायेम वा कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह। हे भगवन् यः सविता देवः परमेश्वरो भवान्नस्माकं धियः प्रचोदयात् स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु नातोऽन्यं भवतुल्यं भवतोऽधि कं च कश्चित् कदाचिन्मन्यामहे।
गायत्री मन्त्र का भाषा में अर्थः हे मनुष्यो ! जो सब समर्थों में समर्थ, सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला, कृपासागर, ठीक–ठीक न्याय का करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकाररहित, सब के घट–घट का जानने वाला, सब का धर्त्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है, उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामीस्वरूप से हम को दुष्टाचार अधम्र्मयुक्त मार्ग से हटा कर श्रेष्ठाचारयुक्त सत्य मार्ग में चलावे, उस को छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें। क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है।
यह गायत्री मन्त्र का संक्षिप्तार्थ है जो महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है। यह इतना सुन्दर, सार्थक व सारगर्भित अर्थ सर्व प्रथम महर्षि दयानन्द ने सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को लिखते समय किया था। इतना सुन्दर अर्थ उनसे पूर्व अन्यत्र उपलब्घ नहीं होता। यह गायत्री मन्त्र गुरू मन्त्र भी कहलाता है। क्योंकि इसी मन्त्र का प्रथम माता अपने बालक को घर में और गुरूकुल वा पाठशाला में आचार्य ब्रह्मचारी को उपदेश करते थे। मन्त्र में ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण-कर्म-स्वभाव पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ हि इस मन्त्र में जीवन को सफल करने के लिए ईश्वर द्वारा बुद्धि को सद्प्रेरणा देने की प्रार्थना की गई है। बच्चों को प्रेरणा देने का कार्य माता-पिता व आचार्य करते हैं। परमात्मा इन सबका भी आचार्य व गुरू होने के कारण उपासक व याचक द्वारा उस परम आचार्य ईश्वर से ही बुद्धि को सन्मार्ग में चलाने की प्रेरणा करने की प्रार्थना की गई है। परमात्मा आत्मा के भीतर सर्वान्तर्यामी रूप से विद्यमान है। वह हमारे मन के प्रत्येक विचार को जानता है, प्रार्थना को सुनता है और हमारे कर्मों को जानता है। अतः उससे की गई प्रार्थना निःसन्देह सुनी भी जाती है और पात्रता के अनुसार पूरी भी की जाती है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र, योगेश्वर श्री कृष्ण जी, आचार्य चाणक्य व समस्त ऋषि-मुनि ईश्वर से गायत्री मन्त्र द्वारा श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करने व उसे प्रेरित करने की प्रार्थना करते आये हैं। हम भी गायत्री मन्त्र के अर्थ सहित जप व ईश्वर का ध्यान कर इष्ट को प्राप्त कर सकते हैं। हम आशा करते हैं कि इस गायत्री मन्त्र के अर्थ से अनेक पाठकों को लाभ होगा।
–मनमोहन कुमार आर्य
इस मंत्र के रचियता परमेश्वर नहीं, विश्वामित्र हैं जो स्वनाम धन्य हैं, अर्थात, यथा नाम तथा गुण। वे ब्रह्मा द्वारा रचित इस सृष्टि के अमित्र हैं, जैसा कि उनके नाम कि संधि विच्छेद से स्पष्ट है।
नमस्ते एवं प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद महोदय। गायत्री मन्त्र वेद मन्त्र है जो तीन वेदों में कई स्थानों व पतों पर उपलब्ध है। समस्त वेद व इसकी ऋचायें ईश्वर प्रेरित हैं। वेदों का यह ज्ञान सर्वव्यापक ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों, अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। इन चारों ऋषियों को एक एक वेद का ज्ञान दिया गया था। इन्होंने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया। इन्हीं से ऋषि परम्परा चली। सभी ऋषि मन्त्रों के रचयिता नहीं मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा व उसके प्रचारक थे। उनके नाम सम्मानार्थ वेदमन्त्र के साथ लिखे जाते हैं। ऐसे ही जैसे विज्ञान के नियमों व सिद्धान्तों की खोज करने वाले वैज्ञानिक उन नियमों व सिद्धान्तों केा बनाने वाले नहीं होते अपितु सृष्टि में उन नियमों का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने वाले व उसके प्रचारक होते हैं। सम्मानार्थ वह नियम उनके नाम से प्रसिद्ध व प्रचलित किया जाता है। उन्हें खोज करने वाले के स्थान पर नियमों का बनाने वाला मानना बहुत बड़ी भूल होगी परन्तु बहुत से विद्वानों को भी यह अन्तर ज्ञात नहीं होता। वह नियम व सिद्धान्त तो सृष्टि में आदि काल से काम कर रहे होते हैं। इस विषय में विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका को पढ़ा जा सकता है जहां इस विषय के प्रत्येक पहलू पर विचार व समाधान दिया गया है। सादर।
गायत्री मंत्र के 101 श्लोकों के रचियता विश्वामित्र ही हैं, ऐसा हमारे पुराण बताते हैं जो कि हमारा इतिहास हैं। वैदिक ज्ञान भी, सामी मतों (यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि) की तरह किसी तूर पर्वत पर बैठे पैगम्बर को परमात्मा द्वारा अता नहीं किया गया है, बल्कि ऋषियों द्वारा, योग विद्या से स्थिर की हुई सूक्ष्म बुद्धि से प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को उजागर और प्रतिपादित किया गया है। ऐसा मेरा मानना है।
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आभार एवं धन्यवाद महोदय। शास्त्रों में जहां पुराण शब्द आता है वह वेद, ब्राह्मण, दर्शन व उपनिषदों के लिये आता है। सम्प्रति प्रचलित 18 पुराण तो विगत 1000 वर्षों में ही लिखे गये हैं जिनमें परस्पर विरोध, एक दूसरे देवी, देवता की निन्दा सहित अनेक वेद विरूद्ध, युक्ति विरूद्ध, अश्लील व अविवेकपूर्ण बातें हैं। योगेश्वर श्री कृष्ण के चरित्र को ब्रम्हवैवर्तपुराण व भागवत पुराण में लज्जित करने वाली बातें हैं। वर्तमान पुराणों की बात तब तक स्वीकार्य नहीं होती जब तक कि वह वेदानुकूल हों और सभी प्राचीन ग्रन्थों व युक्तियों से भी स्वीकार्य हो। वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने चार ऋषियों की जीवात्माओं में दिया था। वेद के सभी मन्त्रों का कत्र्ता ईश्वर है तथा ब्रह्माजी से इतर ऋषि जिनके नाम वेद मन्त्र के साथ दिये जाते हैं, वह सभी मन्त्रों के कर्त्ता नहीं अपितु द्रष्टा मात्र व प्रचारक थे। गायत्री मन्त्र तीन वेदों में पाया जाता है। अलग अलग ऋषियों को इस मन्त्र का साक्षात्कार हुआ था। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र वा गुरू मन्त्र केवल व केवल एक ही है। 101 श्लोकों की जहां तक बात है वह गायत्री छन्द के अन्य मन्त्र हो सकते हैं परन्तु वह अधिक प्रसिद्ध नहीं है। शतपथ ब्राह्मण वैदिक साहित्य का सबसे पुराना ग्रन्थ है जो सृष्टि के आरम्भ काल में ऋषियों द्वारा लिखे गये थे। यह महाभारत व रामायाण काल से भी प्राचीन है। सही मायनों में यही पुराण ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। इस ग्रन्थ में संख्या 11/4/2/3 वाक्य ‘‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।” प्रमाण उपलब्ध है। इसके अनुसार प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा, इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया था। मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। सत्य को स्वीकार करना व असत्य को छोड़ना मुझे अभीष्ट है। यदि आप प्रमाणों से सिद्ध कर सकें तो आपका स्वागत है। यह अवश्य कहना चाहूंगा कि 18 पुराण प्रमाण कोटि के ग्रन्थ नहीं है।
बहुत अच्छा लेख !
गायत्री मंत्र बहुत प्रेरणादायी और शक्तिदायक है। इसका अनुभव मैंने स्वयं किया है। इसको अर्थ सहित जाप करने से बहुत लाभ होता है।
नमस्ते श्री विजय जी। सारगर्भित, यथार्थ प्रतिक्रिया व स्वानुभव सूचित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।