संसार को किसने धारण किया है?
ओ३म्
सभी आंखों वाले प्राणी सूर्य, चन्द्र व पृथिवी से युक्त नाना रंगों वाले संसार को देखते हैं परन्तु उन्हें यह पता नहीं चलता कि यह संसार किसने व क्यों बनाया और कौन इसका धारण व पालन कर रहा है? जिस प्रकार प्राणियों के शरीर का धारण उसमें निहित जीवात्मा के द्वारा होता है, इसी प्रकार से इस संसार रूपी शरीर का धारण भी किसी चेतन सत्ता के द्वारा ही होना सम्भव है। जिस प्रकार से बिना आत्मा के शरीर मृतक के समान होता है, इसी प्रकार से बिना सत्य, चित्त व आनन्द स्वरूप ईश्वर के यह संसार भी बन व चल नहीं सकता। यदि संसार चल रहा है तो कोई सत्ता अवश्य है, जो इसे चला रही है अन्यथा यह मृतक शरीर की भांति निष्क्रिय व निर्जीव होता। मनुष्य के शरीर को जीवात्मा धारण किये हुए होता है। जीवात्मा में ज्ञान व क्रिया का स्वभाविक गुण होता है जिससे आत्मा के द्वारा शरीर धारण किया जाता है। ज्ञान दो प्रकार का होता है, एक सत्य व दूसरा असत्य। सत्य यथार्थ गुणों को कहते हैं और असत्य अयथार्थ, अस्तित्वहीन व सत्य के विपरीत जो वास्तविक नहीं अपितु कृत्रिम गुण हों, उनको कहते हैं। उदाहरण के लिए हम अपने शरीर को लेते हैं। यह भौतिक द्रव्यों से बना हुआ है जिसमें दो आंखे, दो नासिक छिद्रों से युक्त नासिका, दो कान, वाणी बोलने के यन्त्र व दांतों से युक्त मुख, त्वचा सहित 5 ज्ञान व 5 कर्म इन्द्रियां, मन एवं बुद्धि हैं। यह सत्य है, इसके विपरीत यह कहना कि शरीर में आंख, नाक, कान आदि हैं ही नहीं, यह असत्य है। यही वास्तविक ज्ञान है। ज्ञान में अपनी स्वाभाविक शक्ति भी निहित होती है। ज्ञान रहित जड़ पदार्थों को ज्ञानयुक्त सत्ता नियंत्रित करती है और ज्ञानयुक्त जीवात्मा व परमात्मा ज्ञान के अनुसार शक्तिवान व क्रियाशील हैं।
संसार को कौन धारण कर रहा है? इसका उत्तर देने से पूर्व आरम्भ में किये गये प्रश्न कि संसार को किसने व क्यों बनाया है, इसका संक्षिप्त उत्तर पर विचार करते हैं। इस दृश्यमान संसार को उस सत्ता ने बनाया है जो कि संसार को बना सकती है। कौन सी सत्ता बना सकती है? इसका उत्तर है जो सत्य, चित्त, दुःखों से सर्वथा रहित पूर्ण आनन्द युक्त, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तरयामी, सर्वशक्तिमान आदि गुणों से युक्त हो, उसी सत्ता से यह संसार बन सकता है। जड़ पदार्थ न तो स्वयं कुछ बुद्धिपूर्वक ज्ञानयुक्त रचना बन सकते हैं न ही परस्पर मिलकर बना सकते हैं और न ही उन पदार्थों का बिना बने कोई महत्व होता है। किसी पदार्थ की रचना किसी ज्ञान युक्त सत्ता से ही हुआ करती है और यह भी नियम है कि ज्ञानयुक्त सत्ता कोई भी कार्य अवश्य ही किसी प्रयोजन से करती है, बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करती। जीवात्मा को ही लें, यह ज्ञानयुक्त व कर्म करने वाली सत्ता है। यह जो भी कार्य व क्रिया मनुष्य के रूप में करती व कराती है उसका प्रयोजन अवश्य होता है। निष्प्रयोजन यह कोई कार्य कदापि नहीं करती। अतः ईश्वर जिससे यह संसार बना, उसका चेतन पदार्थ होना आवश्यक है। सत्ता होने से वह सत्य है। जिनकी सत्ता नहीं होती वह असत्य पदार्थ होते हैं। संसार की विशालता को देखकर और इसके बनाने वाले के आखों से दिखाई न देने के कारण वह निराकार व सर्वव्यापक है। सारा संसार एक सुनियोजित व ज्ञानयुक्त सत्ता है जिससे ईश्वर का सर्वज्ञ होना सिद्ध होता है। इसी प्रकार से दुःखों से युक्त व्यक्ति की कार्य करने में रूचि नहीं होती। कोई भी कार्य करने के लिए स्वस्थ व सुखी होना आवश्यक है, इसी प्रकार से ईश्वर यह रचना बनाकर चला रहा है तो इससे उसका सर्वानन्दयुक्त होना सिद्ध होता है। दिखाई न देने से वह सर्वातिसूक्ष्म तत्व है और प्रकृति के सत्व, रज व तम कणों से जो कि अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनसे परमाणुओं, अणुओं का निर्माण कर ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई है, इससे भी सर्वातिसूक्ष्म सिद्ध होता है। इसी प्रकार सर्वान्तर्यामी एवं सर्वशक्तिमान विशेषण भी ईश्वर में सिद्ध होते हैं। ईश्वर का ऐसा ही स्वरूप ईश्वरीय ज्ञान वेदों में कहा गया है जो सृष्ट्यिुत्पत्ति के समय ईश्वर ने चार ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा दिया था। ईश्वर के इस स्वरूप के विपरीत ईश्वर का चित्रण, वर्णन व कथन असत्य व निराधार है। वह लोगों की अज्ञानता व वैदिक ज्ञान से अनभिज्ञता व कुछ व अधिक निजी स्वार्थों के कारण होता है। वेदों के प्रमाणों के अतिरिक्त हमारे ऋषि-मुनि जिन्हें हमें अध्यात्म विज्ञान के वैज्ञानिक कह सकते हैं, उन्होंने योग पद्धति से उपासना करके ईश्वर के स्वरूप का अपनी हदय गुहा में साक्षात्कार कर इसे सत्य पाया और दर्शनों, स्मृतियों व उपनिषदों में अपने ज्ञान व अनुभव पर आधारित ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन किया। अतः ईश्वर का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। यह संसार ईश्वर के द्वारा सत्व, रज व तम गुणों वाली जड़ प्रकृति (ज्ञान रहित) से पूर्व कल्पों के अनुसार जीवों को उनके पाप व पुण्य कर्मों के फलों को देने के लिये बनाया गया है, यह सिद्ध होता है। यह ऐसा उत्तर है जिससे विषय की समस्त शंकाओं व प्रश्नों का समाधान हो जाता है और यह वेदों से भी पुष्ट है।
हमारे लेख का विषय है कि संसार को किसने धारण किया हुआ है। इसके दो उत्तर हैं पहला तो यह कि सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर ने व दूसरा सत्य नियमों ने। मनुष्यों के सत्य कर्मों व आचरण जिसे धर्म की संज्ञा दी गई है, उससे यह संसार पल्लवित व पुष्पित होता है और मिथ्याचरणों व अन्धविश्वास आदि से यह अव्यवस्थित होता है जिसके लिए सभी देशों की सरकारों ने दण्ड का प्राविधान किया हुआ है। यह सिद्धान्त ईश्वर के पाप-पुण्य के अनुसार पुरस्कार व दण्ड के विधान जिसे कर्म-फल व्यवस्था कहते हैं, का अनुकरण है। ईश्वर ने इस संसार को अपने सत्य नियमों में आरूढ़ होकर धारण किया हुआ है। इसका अर्थ है कि सृष्टि को बनाने व चलाने में जिन सत्य नियमों की आवश्यकता है, ईश्वर उसका पूरा पूरा पालन करता है। यदि ऐसा न हो तो यह संसार न तो बन ही सकता था और न चल ही सकता था। वैज्ञानिक भौतिक पदार्थों का अध्ययन कर जिन नियमों को ईश्वर प्रदत्त बुद्धि व ज्ञान से जान पाते हैं, वह नियम ईश्वर के बनाये नियम हैं और उन्हें ही सत्य नियम कहा जाता है। उन व वैसे ही अन्य सत्य नियमों से संसार का धारण ईश्वर करता है। ईश्वर मनुष्यों को अपने सत्य नियमों से उत्पन्न करता है और उनसे अपेक्षा करता है कि वह भी सत्य का पालन व धारण करें। यही सच्चा मानव व वैदिक धर्म है। जो मनुष्य इनका पालन करता है वह ईश्वर की व्यवस्था से सुखी व दुःखों से निवृत रहता है। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानकर व ईश्वर के बनाये सत्य नियमों के अनुसार प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करना तथा किसी पदार्थ का किंचित दुरूपयोग न करना ही मनुष्यों का कर्तव्य है। जो मनुष्य जीवन में सत्य विद्याओं व वेदों का अध्ययन नहीं करते व जिनका आचरण व व्यवहार सत्य नियमों के विपरीत होता है, वह संसार व ईश्वर के सत्य नियमों में बाधक बनते हैं जिससे ईश्वर उनको दुःख के रूप में दण्ड देता है। यह प्रायः मानसिक क्लेश, शारीरिक दुर्बलता व रोग आदि के रूप में होता है। वेदों व वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ लोगों को अपने दुःखों का कारण समझ में नहीं आता और वह इनका समाधान आर्थिक समृद्धि आदि में खोजते हैं जिससे आंशिक लाभ ही होता है। आर्थिक समृद्धि व सपन्नता से किसी मनुष्य के आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक दुःखों की पूर्ण निवृत्ति अद्यावधि देखने में नहीं आई। इससे जीवन में एक प्रकार का द्वन्द्व बनता है जिसमें उलझ कर वेद ज्ञान से अनभिज्ञ सत्य आचरण न करने वाले धनी व निर्धन व्यक्ति दुःखों व क्लेशों से आबद्ध रहकर कालान्तर में अभिनिवेश क्लेश मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः वेदाध्ययन करना, सृष्टि में कार्यरत नियमों को जानना, ईश्वर-जीव-प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानकर ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते हुए सत्य नियमों के आधार पर धन अर्जित कर जीवन व्यतीत करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है एवं सृष्टि में कार्यरत सत्य नियमों का पोषक है।
यह संसार सत्य नियमों में आबद्ध होकर बना व चल रहा है। हमें भी अपने जीवन को सत्य नियमों में आबद्ध रखकर जीवन जीना है। सत्य नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना ही अभ्युदय व निःश्रेयस का आधार है। इसके विपरीत दुःख व अवनति का मार्ग है। आईये, अपने जीवन से असत्य, अनीति, अज्ञान, अन्याय, दुराचार, निकम्मापन व भ्रष्टाचार आदि को सर्वथा दूर कर अपने प्रत्येक कर्म को सत्य पर आश्रित व अवलम्बित करके सत्यस्वरूप ईश्वर के आशीर्वाद के अधिकारी बने।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा लेकिन मेरा मान्ना है कि जो इंसान सच्चे अर्थों में धार्मिक है ,वोह आप के लेख के अनुसार इस बात को समझ कर कि कोई शक्ति है जो इस यूनिवर्स को चला रही है ,सच्चाई के रास्ते पर चलने लगता है वर्ना मंदिरों में जा कर घंटे खड्काना निरार्थिक ही होगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पसन्द करने के लिए आपका आभारी हूं। यह वास्तविकता है कि यह संसार अपने आप न तो बन ही सकता है और न चल सकता है। ईश्वर नाम की एक शक्ति इसको बनाती भी है व वही इसे चला रही है। इसी को ईश्वर द्वारा संसार को धारण करना कहते हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी स्वयं को व उस शक्ति के यथार्थ स्वरूप को जानना है। जानकर पूरी सन्तुष्टि कर लेने पर जो उचित कर्तव्य हो उसका पालन करना चाहिये। इस कार्य में ज्ञानी पुरूष सहायक होते हैं परन्तु आजकल वह दुर्लभ हो गये हैं। वेद एवं वैदिक साहित्य भी इसमें सहायक है। किसी भी भाषा, मत, मजहब व धर्म के साहित्य को पढ़ने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है परन्तु पहले वह ग्रन्थ पढ़ने चाहिये जिनमें कहानी-किस्से न होकर विद्या व सत्य ज्ञान हैं और जो सबसे अधिक उपयोगी हैं। इससे बुद्धि में विद्यमान अन्धकार का नाश हो जायेगा। उसके बाद वह वयक्ति कुछ भी पढ़ेगा तो उस पर अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियों व मिथ्याभाषों का प्रभाव नहीं होगा। आजकल यह प्रक्रिया बन्द हो चुकी है। इसलिये नित नये अन्धविश्वास पैदा हो रहे हैं। आपकी पूरी प्रतिक्रिया आदर्श है जिसका एक-एक शब्द प्रशंसनीय एवं आचरणीय है। मन्दिरों में जाना और वहां घंटे खड़खड़ाना व बजाना, वेदाध्ययन करने के बाद, मुझे तो अन्धविश्वास से अधिक कुछ नहीं लगता। गीता में कृष्ण जी ने अर्जुन को सम्बोधित कर कहा है कि “हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के हृदयों में विराजमान है।” इसका अर्थ है कि ईश्वर सर्वान्तर्यामी है। इसलिये ईश्वर तो हृदय में ढूढंने पर ही मिलेगा। वह हमारे हृदय के प्रत्येक विचार को जानता व समझता है, वह श्रवण शक्ति विहीन नहीं है, अतः घंटे व घडि़याल बजाने से उसका अपमान होता है। जो लोग ऐसा करते हैं वह नासमझ होने के कारण दया के पात्र हैं। आशा है कि आप मुझसे सहमत होंगे? आपका हार्दिक धन्यवाद।