कविता

मैं हूँ पेड़

 

मैं हूँ पेड़
जब मैं छोटा था
अभिलाषी था
पावन भूमि का
अच्छे इंसान का
मानव के जैसे जीवन का
बन और बिहंगम का
जब थोडा बड़ा हुआ
भयभीत रहने लगा
पशुओं से ,
पशु तुल्य इंसानो से
जब मैं थोडा बड़ा हुआ
लोग इर्द गिर्द घूमने लगे
मेरे फल ,
मेरी छाया की लालसा में ।
काटने लगे मेरी साखाओँ को
लगने लगी मेरी बोली
मोल भाव
व्यापार के लोभ में
सौदा हुआ मेरा
चली कुल्हाड़ी
प्रहार पे प्रहार
धाराशायी हुआ
समूल नस्ट हुआ मेरा
दमन हुआ मेरी इक्षाओं का ।
मेरी अपूर्णित लालसाओं का
जो मानव को छाया देने की थी ।
जो मानव के
सांसो के तार से जुडी थी ।
जिसने देखे थे अनेकोनेक सपने
बाल वंश मेरे भी बढ़े
हो मेरे भी अपने
धरा का कोर
हरियालियो से भर जाए
पर निर्जीव कटा पेड़
अपनी उत्कंठाओ के साथ ।
धाराशाई था ,
मुस्कुरा रहा था ।
अट्टहास गर्जनाये कर रहा था
हे मानव हम कट के भी
तेरे चिता की अग्नि बने है
तू हार गया हम मर के भी
विजय हुए है ।

— धर्म पांडेय