कहानी

सोने की बिल्ली 

शहर के बड़े अस्पताल के सर्जन की पत्नी को पहला बेटा होने को था। पर बेटा ही क्यों? बेटी क्यों नहीं? डा साहब नियमित रूप से पूरी चैत्र और शारदीय नव-रात्रि भर दुर्गा पाठ करते थे। 12वें अध्याय में देवी का आश्वासन है “सर्व बाधा विनिर्मुक्तो धन-धान्य सुतान्वितः, मनुष्यो मत्प्रासदेन भविष्यति नहिं संशयः”-इस पर डा साहब का पूरा विश्वास था कि सुत ही होगा।

शहर में कई बड़े सरकारी अस्पताल थे। पर प्राइवेट अस्पताल का ग्लैमर ही और होता है। अतः डा साहब ने एक नामचीन लेडी डा के यहाँ डिलिवरी कराने का निश्चय किया। पर सभी चीज़ें वैसी नहीं हो पाती जैसा हम चाहते हैं। ऐसा ही सर्जन साहब के साथ हुआ। डिलिवरी के संभावित तिथि के पहले ही ट्रीटिंग लेडी डा॰ का इंतकाल हो गया, डा॰ साहेब का भी तबादला उसी शहर में दूसरे अस्पताल में हो गया। दूसरा अस्पताल रेफेरल अस्पताल (सारे प्रांत के बीमा अस्पतालों से केस उसी अस्पताल में रिफ़र होते थे) था, इसलिए डा साहब अपने काम में व्यस्त हो गए, और शिफ्टिंग कि सारी ज़िम्मेदारी बिचारी उनकी गर्भवती पत्नी पर आन पड़ी।

इस कार्य में पत्नी के मायके वाले बहुत काम आए। यह अस्पताल मेडिकल कालेज के पास था। इसी कालेज से डा साहब भी पढे थे, काफी जानपहचान थी अतः डिलिवरी वहीं कराने का निर्णय किया। गाइनी विभाग में पहुँच कर तो डा साहब का दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया। उनकी पढ़ाई स्टूडेंट्स हाउस सर्जन थीं, जिन डाक्टरों को उन्होंने चाकू पकड़ना सिखाया, घाव सिलना सिखाया- आज सीनियर डाक्टर हो चुकी थीं और कंसल्टेंट की निगरानी में उन्हीं को डिलीवेरी करानी थी। इतने नमस्कार, कि पत्नी भी खुश हो गई। हाँ, नमस्कार के साथ लेडी डाक्टरों की मुस्कुराहट पत्नी को उतनी अच्छी नहीं लगी।

प्राइमरी चेक-अप हो गया। एक्स्पेक्टेड डेट के पहले ही वी॰आई॰पी॰ ‘दीपिका’ वार्ड भी एलाट हो गया। इसकी चाभी परमानेंटली लेबर रूम में रख दी गई।जिससे ज़रूरत पड़ने पर शीग्र उपलब्ध हो सके। खैर लेबर पेन्स शुरू हुए। पत्नी सीधे लेबर-रूम पहुंचा दी गई। डाक्टरनियां मुस्तैदी से देख भाल करने लगीं। डाक्टर साहब दीपिका वार्ड में सामान रखवाने पहुंचे। वार्ड खोला गया। पहले से ही साफ-सुथरा कर रखा गया था। पर यह क्या…? लाइट जलते एक बड़ी काली बिल्ली बिजली की फुर्ती से खिड़की के बाहर भाग गई। डा साहब का दिल धक्क से हुआ। विचलित हो कर उन्होंने सास जी से कहा: “यह तो अच्छा नहीं हुआ”

सास खुले दिमाग की थीं। वह अंधविश्वास पर यकीन नहीं करतीं थीं, बोलीं “भईया यह जीव-जन्तु अस्पताल में मरीजों के दिये खाने पर ही पलते हैं। बंद कमरे में तो बिल्ली आसरा ले ही लेती है। आप काली बिल्ली का वहम मत पालिए” डा साहब सास से तो कुछ नहीं बोले पर वह वार्ड में बिल्ली मिलने से हिल गए थे……

जनाने अस्पताल में साफ-सफाई के लिए काफी स्टाफ तैनात रहता है। खास कर लेबर-रूम में। रक्त से सने कपड़े, रुई व प्लैसेन्टा (खेड़ी, नारा-झोरा या एक मांस का आवरण जिसमें गर्भस्थ शिशु सुरक्षित रहता है, और प्रसव में बच्चे के साथ बाहर आ जाता है) आदि जिसको कायदे से ज़मीन में गाड़ दिया जाना चाहिए; कर्मचारी लापरवाही से इधर उधर डाल देते हैं। अस्पताल में बेटोक घूमती बिल्लियाँ इन्हें खा कर तगड़ी तो हो ही जाती हैं साथ ही ‘लागुन’ हो जाती हैं। नवजात शिशु के शरीर से भी प्लैसेन्टा की खुशबू आती रहती है। कभी कभी अकेले शिशु को पाकर उसे प्लैसेन्टा समझ कर शिशु पर भी अटैक कर देतीं हैं। पिछले महीने ही कई नवजात इसी तरह बिल्ली द्वारा घायल किए जा चुके थे।

बच्चे के होने के पहले इलाजकर्त्री लेडी डाक्टर की मृत्यु, ट्रान्सफर और अब बिल्ली के आतंक के बीच काली बिल्ली का कमरे में आवास…! डाक्टर साहब का परेशान होने उचित भी था। डा॰ साहब की परेशानियों का अंत नहीं था। एक कनिष्क लेडी डाक्टर ने आकर बताया कि ओ॰ टी (आपरेशन के कमरे) में आक्सीजन नहीं है। आपरेशन की स्तिथि में आक्सीजन की ज़रूरत तो पड़ेगी ही। डा॰ साहब के ताल्लुक़ात काम आए, दिल वाले अस्पताल से आक्सीजन मिल गई।

जच्चा-बच्चा अस्पताल में आपको लगभग साहित्य में वर्णित सभी रस दिख जाएँगे, जैसे – जब मरीज़ अस्पताल पहुंचता है तो सभी के दिल में उत्सुकता और उत्साह होता है। प्रसव पीड़ा के साथ यह चिंता, से उत्पन्न भक्ति और करुणा का रूप ले लेता है जो, प्रसव उपरांत वात्सल्य और शांत रस में परिवर्तित हो जाता है। माँ के शरीर से एक और नंहीं जान दुनियाँ में आना कम विस्मय कारी नहीं है। कभी कर्मचारियों या स्टाफ की कड़ुवी ज़बान की वजह से वीर अथवा रौद्र रस प्रकट होता है तो कभी अत्यधिक मरीजों की संख्या से अथवा सफाई की कमी से दुर्गंध, गंदगी की वजह से वीभत्स वातावरण भी परिलक्षित हो जाता है।

डा साहब के केस में करुण और भक्ति रस की स्टेज चल रही थी, कि लेबर रूम से उनकी पत्नी का बुलावा आया। जब वह ड्यूटी पर होते और उन्हें विशेषज्ञ के रूप में प्रसूति-गृह में काल किया जाता था तब वह बेझिझक लेबर रूम में चले जाते थे, परंतु आज वह चिकित्सक कि हैसियत से अलग स्तिथि में होने की वजह से पहले अन्य मरीजाओं की पर्दे की व्यवस्था के बाद ही लेबर रूम में गए। पत्नी ने आँखों में आँसू भर कर कहा: “बहुत पीड़ा है। जरा डाक्टरों से बात करो, मेरे बाद आई महिलाओं की डिलिवरी यह लोग निपटाती जा रहीं हैं केवल मेरे केस में देर लगा रहीं हैं।”

पास ही खड़ी डाक्टर हँसते हुए बोली: “भाभी जी उन सभी महिलाओं का बच्चे पैदा करने के अनुभव आपसे बहुत ज़्यादा है। कोई चौथा और कोई पाँचवाँ बच्चा जन रही है। आप भी भगवान न करे चौथा बच्चे के लिए आओगी तो आपकी भी ऐसी ही क्विक सर्विस होगी”

करुण रस का वातावरण हास्य के पुट से हल्का गया।

डा की स्थिति बड़ी अजीब होती है। सभी लोग पहले से ही कह रहे थे की वी॰आई॰पी॰ होने से बेवजह आपरेशन होने की संभावना ज़्यादा होती है। भईया देखना कहीं ऐसे ही सर्जरी न हो जाए—आदि, आदि

बहरहाल हुआ वही जिसका डर था। बच्चा दुनियाँ में आने को तैयार नहीं था। नीचे आने के बजाय बार बार ऊपर लौट जाता था। डाक्टरों ने कहा हो सकता है (तब अल्ट्रासाउंड की सुवधा नहीं थी) बच्चे के गले में नाल का फंदा पड़ा हो इसलिए नीचे नहीं आ पा रहा है। डाक्टरों का अनुभव-जन्य अनुमान ठीक निकला। आपरेशन करना पड़ा। डा साहब की एक सहयोगी बेहोशी की डाक्टर थी और इस संभावना के पूर्वानुमान कर वह लेबर रूम में पहले से ही मौजूद थी। आपरेशन हुआ। पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। सब प्रसन्न थे। सिवा पिता के। सबने डा से उनकी अन्यमनस्कता का कारण पूँछा। कुछ मित्रों ने मसखरी करी- बच्चे की सूरत पिता से नहीं मिलती इसलिए डा साहब का दिल बैठ गया। कुछ देर शांत रहने के बाद उन्होंने बात शेयर की, और बिल्ली के आतंक के बारे में सबको अवगत कराने के बाद वह बोले “अब तो बच्चे को वार्ड में ले जाना होगा, जहां आतंकी बिल्ली पहले से ही डेरा डाले है। इस समय कोई और वार्ड खाली नहीं है। मजबूरी है”

डा साहब की सास व पत्नी की बड़ी बहन ने आश्वासन दिलाया की वह बच्चे का रातो-दिन ध्यान रखेंगी। भगवान का चाहा सब ठीक होगा। डा साहब कृतज्ञता से भर गए।

तब प्राइवेट वार्ड में भी कूलर या ए सी नहीं होते थे। जून की उमस भरी गर्मी, कमरे में दो पलंग। एक पर प्रसूता व दूसरे ढाई फिट के पलंग पर बच्चे की नानी और मौसी बच्चे को बीच में रख कर बारी-बारी से सोती जागती रहती थीं। डा साहब को पत्नी के पूर्व निर्देश थे कि आपको मेरे साथ ही रहना होगा। पत्नी के रहने से पत्नी ज़्यादा आश्वस्त रहती है। पर रात में डा साहब लेटें कहाँ? डाक्टर भईया क्या ज़मीन में सोएँगे? सभी चिंतित थे। इस प्रश्न के आते ही पत्नी करवट ले कर सो गई या सोने का नाटक करने लगी। प्रश्न वहीं का वहीं रहा। तभी लेडी-डाक्टरों का झुंड नाइट राउंड पर आया। सभी एक स्वर से बोलीं: “अरे इनको सोने की क्या ज़रूरत है। हम लोग यहीं बरामदे में बैठ कर ड्यूटी करेंगे, गप्प लगाएंगे, चाय-पानी करेंगे, जब काल आएगी तो जाकर देख आएंगे। ड्यूटी चाहे यहाँ बैठ कर करें या ड्यूटी-रूम में लेट कर। रात बात करते कट जाएगी। क्यों डाक्टर साहब अभी कुछ साल पहले तक हमलोग इसी तरह तो ड्यूटी पर रात गुज़र देते थे; हैं ना…?”

यह प्रस्ताव कान में पड़ते ही पत्नी कुनमुनाई…। डाक्टर साहब को मजबूरी में हाँ कहना पड़ा- बहुत दिनों के बाद एक बार फिर रात की ड्यूटी हंसी ठहाकों में कब बीत गई पता ही नहीं चला।

पर अगले दिन सुबह भयानक गर्मी से भी ज़्यादा श्रीमती जी का पारा गरम था। एक तो सद्य-प्रसूता पत्नी, वह भी जिसने बेटा जना हो और मायके वाले साथ हों- कितना fatal combination (घातक-संयोग)! डा साहब नित्य क्रिया का बहाना करके ही अपने को बचा पाये।

अगली रात डा साहब ने खुद ही फर्श पर चटाई बिछा कर लेटना तय किया और डाक्टरों के नाइट राउंड के पहले लेट कर सोने का नाटक करने लगे। डाक्टरनियाँ आईं। डा साहब को नीचे लेटा देख कर बोलीं “च्च-च्च-च्च डा साहब कैसे ज़मीन पर लेटे हैं”

दूसरी ने कहा “कल हम लोगों ने रात भर इनको सोने नहीं दिया इस कारण आज बिचारों को ज़मीन पर ही नींद आ गई”

तीसरी “अरे तो घर ही चले जाते”

कमरे से बाहर निकलते चौथी डाक्टर जो शादी-शुदा होने के वजह से experienced या अनुभवी थी, की आवाज़ सुनाई दी “अरे बड़े-बड़े शादी के बाद जोरू के गुला…….” और ज़ोर की हंसी।

डा साहब ने ज़मीन पर लेटे लेटे इतनी ज़ोर से आँखें मींचीं की आगे के शब्द दिमाग तक नहीं पहुँच सके।

डा साहब ने अगले दिन चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों से बिल्ली मरवाने की बात की। सबने कहा कोई बिल्ली मारने को तैयार नहीं होगा। कहते हैं बिल्ली मरने से बड़ा पाप लगता है। प्रायश्चित में बिल्ली के वज़न के बराबर सोने की बिल्ली दान देनी पड़ती है। इतना सोना कहाँ से आए?

अथारिटीज से बिल्ली आतंक या cat menace की बात की। वहाँ पता चला की नगरपालिका ने कहा की उनके यहाँ कुत्ता पकड़ने का दस्ता तो है, पर बिल्ली पकड़ने की कोई व्यवस्था नहीं है। वहाँ भी शायद ‘सोने की बिल्ली दान’ ही अड़चन रही होगी।

मरता क्या न करता। मौसी और नानी बीच लेटे शिशु की बारी-बारी से जाग कर पहेदारी करती रहीं, डा साहब ज़मीन पर बिस्तर नशीन रहे, लेडी डाक्टर च्च-च्च-च्च करती रहीं। जच्चा और बच्चा दोनों ही सकुशल घर आ गए।

घर पर पुत्रोत्सव के धमाल के बाद जब डा साहब बेटे को टीका-करण के लिए अस्पताल ले गए तो विशेष कर बिल्ली के आतंक के बारे में जानने हेतु महिला विंग गए। उन्होंने पूछा की अब उस बिल्ली का आतंक कैसा है? सिस्टर व डाक्टरों ने बताया की वह तो आपके जाने के एक हफ्ते के अंदर ही मार दी गई।

डा साहब को सुखद आश्चर्य हुआ।

उन्होंने अपनी समझ से बड़ा अच्छा मज़ाक किया “अरे तो सोने की बिल्ली के दान का क्या हुआ ? मुझे क्यों नहीं बुलाया, मुझसे अच्छा पंडित आपको कहाँ मिलता?”

सिस्टर: “एक मरीज जिसको 14 साल के इंतज़ार के बाद बच्चा हुआ था, के रिश्तेदार ने बिल्ली को मारने हेतु रु॰ 200=00 के इनाम की घोषणा की (उस समय यह बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी। एक डा की शुरुआती सैलरी 300=00 होती थी)। इनाम की रकम सुन कर दो घंटे के अंदर ही सभी कर्मचारियो ने घेर कर बिल्ली को मार दिया”

डा साहब “वाह क्या नायाब तरीका निकाला ! इनाम किस कर्मचारी को मिला?”

सिस्टर: “सभी कर्मचारी आपस में लड़ने लगे की बिल्ली को मैंने मारा। नौबत मारपीट तक पहुँच गई। जब तक वह फैसला हो की बिल्ली को किसने मारा तब तक मरीज मय बच्चे के अस्पताल से जा चुका था।

इस प्रकार बिल्ली का आतंक बगैर इनाम या बगैर ‘सोने की बिल्ली’ दान के ही समाप्त हो गया

One thought on “सोने की बिल्ली 

  • विजय कुमार सिंघल

    हा…हा…हा….हा… बहुत मजेदार कहानी ! यह कहानी कम डाक्टर साहब की आपबीती ज्यादा लगती है.

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