कविता

बचपन का सुहाना पल

बीत गया वो समा सुहाना बीत गया पल सारा,
जीवन की इस भाग दौड़ में खोया बचपन प्यारा।

कभी पकड़ते तितली कभी झूला झूलते सावन में,
पल में कट्टी पल में मस्ती अजब खुशी थी जीवन में।

हम जोली के साथ हमेशा करते खूब ठिठोली,
छुपा छुपाई, कभी खेलते, गुप-चुप आँख मिचोली।

खूब सजाते गुड्डा -गुड़िया करते उनकी शादी,
रोक -टोक न बंधन कोई हर पल थी आजादी।

कभी सुनाती माँ लोरी दादी कभी कहानी,
छुट्टी में बच्चों की मंजिल थी चौपाल पुरानी।

कभी कागजी जहाज उड़ाते कभी पतंग -गुब्बारा,
मन करता है वो प्यारा बचपन आ जाए फिर दोबारा।

– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।