बट हू विल टेक केयर ?
पापा बहुत ख़ुश थे कि उनका बेटा विदेश में अच्छी तरह से सैटल हो गया था। बेटे ने वहीं एक विदेशी युवती से शादी कर ली और उनके दो बच्चे भी हो गए। अब तो उसने अपना एक अच्छा सा मकान भी ले लिया है और बच्चों के साथ मज़े से वहीं रह रहा है। पापा और मम्मी अब काफ़ी बूढ़े हो गए हैं और अक्सर बीमार रहते हैं। पेंशन के जिन रुपयों से गृहस्थी चल जाती थी अब वो कम पड़ने लगे हैं क्योंकि मँहगाई, दवाएँ और फलों का खर्च बजट बिगाड़कर रख देता है।
माँ ने बार-बार फोन करके बेटे को घर आने के लिए कहा क्योंकि पापा बहुत बीमार चल रहे थे। बेटा किसी तरह समय निकालकर पिताजी की बीमारी का हाल-चाल जानने चला आया। माँ-पिताजी बेटे को देखकर बहुत ख़ुश हुए और बहू और पोते-पोती को साथ न लाने पर नाराज़ भी हुए। आज बरसों बाद रसोई में कई चीज़ें एक साथ बनीं और बेटे को ख़ूब खिलाया-पिलाया।
बेटे ने पिताजी से पूछा, ‘‘अब तो इंडिया में भी प्राॅपर्टी के दाम बहुत बढ़ गए हैं। अपना मकान कितने का चल रहा है?’’ ये सुनकर पिताजी को अच्छा नहीं लगा और वो सुना-अनसुना कर गए। बेटे का अगले दिन ही वापस लौटने का कार्यक्रम था। जाते हुए बेटा इतना ही बोल पाया, ‘‘ टेक केयर पापा।’’ यह सुनकर मम्मी की आँखों में आँसू भर आए और वे मन में सोचती ही रह गईं, ‘‘ बट हू विल टेक केयर?’’
प्रश्न उठता है कि क्या मात्र टेक केयर कहने से ही माता-पिता की देखभाल हो जाती है? बुढ़ापे में पैसों की ही नहीं सेवा की भी ज़रूरत पड़ती है। कुछ लोगों की मजबूरी हो सकती है जिसके कारण वे अपने माता-पिता के पास नहीं रह सकते अथवा उन्हें साथ नहीं रख सकते लेकिन माता-पिता को तो उनकी ज़रूरत है। क्या बचपन में माता-पिता किसी विवशता के कारण अपने बच्चों को अपने से कभी दूर होने देते हैं?
प्रायः सभी माता-पिता बच्चों के लिए हर प्रकार के समझौते करने को तैयार रहते हैं फिर उनके बुढ़ापे में बच्चे क्यों नहीं कोई समझौता करने का प्रयास करते? कुछ लोग अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा तो नहीं कर पाते लेकिन उन्हें किसी प्रकार की आर्थिक तंगी नहीं होने देते। ऐसे लोग उन लोगों से बेहतर हैं जिनके माता-पिता दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं लेकिन माता-पिता की सेवा करना भी तो बच्चों का ही फर्ज़ है। हम सब अपने फर्ज़ से कैसे मुँह मोड़ सकते हैं?
आज के आधुनिक शिक्षा प्राप्त तथा पाश्चात्य संस्कृति के पुजारी वैसे तो अपने बूढ़े माता-पिता को कभी पूछते नहीं लेकिन मदर्स डे और फादर्स डे पर उपहार भिजवाना नहीं भूलते। बूढ़े माता-पिता को मंहगे उपहार नहीं देखभाल और प्यार की ज़्यादा ज़रूरत है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि उन्हें देखभाल की भी कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है। वास्तव में उन्हें ज़रूरत है अपने बच्चों के साथ की। बहू और पोते-पोतियों के साथ की। यदि उनकी बहू और पोते-पोतियाँ साथ होंगे तो उन्हें देखभाल की भी कोई ज़रूरत नहीं होगी अपितु वे ही उनके कामों में हाथ बंटा देंगे। परिवार का अभाव ही तो उनके दुख और बीमारी का कारण है।
एकल परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों में रहने वाले माता-पिता और बच्चे सभी अधिक स्वस्थ रहते हैं। साथ रहना सुरक्षा ही नहीं अच्छे स्वास्थ्य का भी मूल है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो माता-पिता के साथ तो रहते हैं और उनका पर्याप्त आदर-सम्मान भी करते हैं, उनके पैर छूते हैं लेकिन अपने बच्चों को उनके पास तक फटकने नहीं देते। मात्र दिखावे के लिए आदर-सम्मान भी पर्याप्त नहीं अपितु पूर्ण रूप से अपनेपन की ज़रूरत है।
दादा-दादी अपने पोते-पोतियों के साथ घुलमिल कर रहें तभी उन्हें अच्छा लगेगा। दोनों एक दूसरे के साहचर्य से परस्पर लाभांवित भी हो सकेंगे। बच्चे थोड़े बड़े होंगे तो अपने दादा-दादी का काम करेंगे और छोटे होंगे तो उनसे अपना काम करवाएँगे जिससे दादा-दादी अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय जीवन व्यतीत कर सकेंगे। यदि सचमुच अपने बूढ़े माता-पिता को स्वस्थ रखना है, उनकी सेवा करनी है तो उनसे उनके पोते-पोतियों का संसार मत छीनिये।
प्रेम नारायण गुप्ता
यथार्थ को व्यक्त करता सशक्त लेख।