भारतीय वैदिक संस्कृति का मूल योग, वेद व यज्ञ है।
ओ३म्
भाजपा सांसद स्वामी सुमेधानन्द सरस्वती का गुरूकुल पौंधा, देहरादून में उद्बोद्धन।
राजस्थान के सीकर से सांसद और आर्यसमाज के विख्यात संन्यासी स्वामी सुमेधानन्द सरस्वती जी गुरूकुल पौन्घा, देहरादून सन् 2015 के वार्षिकोत्सव में पधारे। उन्होंने इस अवसर पर देश भर से पधारे विशाल वैदिक धर्म प्रेमी विशाल जन समुदाय हो सम्बोधित किया। उनका दिया गया यह सम्बोधन पाठको की जानकारी के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रवचन से पूर्व स्वामी जी का गुरूकुल में आगमन पर भव्य स्वागत किया गया। स्वामी जी ने अपना प्रवचन वेदमंत्र ‘ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि’ से आरम्भ किया। स्वामीजी ने कहा कि गुरूकुल की इस पावन तपस्थली पर उपस्थित गुरूकुल के आचार्यगण, जिन्होंने गुरूकुल शिक्षा पद्धति के उद्धार के लिए अपना जीवन आहूत किया है ऐसे श्रद्धेय सन्त स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज, आर्यजगत के उच्च कोटि के विद्वान डा. रघुवीर जी, डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी, माननीय श्री वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी, आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी, कुलसचिव महोदय, उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय और मंच पर उपस्थित सभी विद्वतजन, देश के कोने-कोने से पधारे सभी सज्जनों, मातृ शक्ति और प्रिय ब्रह्मचारियों ! श्रद्धेय स्वामी प्रणवानन्द जी का सान्निध्य मुझे प्राप्त होता रहता है। सबसे बड़ी आपकी विशेषता आपने सौम्यता के गुण को धारण किया हुआ है। एक छोटा बालक भी आपके सामने आता है तो उसे आप परमार्थ के भाव से देखते हैं। बड़े से बड़ा विद्वान आपके पास आता है तो श्रद्धापूर्वक उसे नमन करते हैं। प्रत्येक आर्यबन्धु के साथ आप स्नेह का भाव रखते हैं। उसी का परिणाम है कि पूरे देश में और विदेश तक, दुनिया में जहां कहीं आप जाते हैं वहीं पर वैदिक वांग्मय का प्रचार होता हुआ दिखता है, वैदिक धर्म की जयजयकार करता हुआ मिलता है। पूरे विश्व के अन्दर जिस व्यक्ति ने अपनी आभा को फैलया है ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं। आज का यह सम्मेलन विद्याव्रत सम्मेलन के नाम से आयोजित किया गया है। एक सामान्य विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में जाने का मुझे अवसर प्राप्त होता है। देश के अनेक उत्सवों में भी मुझे जाने का अवसर प्राप्त होता है। आज मैंने करीब डेढ़़ से दो घंटे यहां बैठकर कार्यक्रम देखा है। इस पूरे कार्यक्रम में इस मंच के माध्यम से बह्मचारियों ने अनेक विषयों पर अपने विचार रखे हैं जिन विषयों को प्रस्तुत करने के लिए बड़े-बड़े विद्वानों को स्वाध्याय करना पड़ता है, तब वह तथ्य व प्रमाणों सहित अपने विचारों को प्रस्तुत कर पाते हैं। इस गुरूकुल के ब्रह्मचारी वेदी के ऊपर बैठकर कर वैदिक वांग्मय के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे। अपने विचारों को प्रमाणित करने के लिए प्रमाण दे रहे थे। इससे आपको यह आभास हो गया होगा कि इन पहाडि़यों की कन्दराओं में बैठकर यह ब्रह्मचारी अपनी बुद्धियों को किस प्रकार से सफल कर रहे हैं। किस प्रकार से उसका सृजन कर रहे हैं व उसे परिमार्जित कर रहे हैं। इसका साक्षात दृश्य आपने अपने सामने देखा है।
मैं आप सबसे एक बात कहना चाहूंगा। कल ही विश्व पर्यावरण दिवस था। आपने देखा कि किस तरह लोगों ने अपनी चिन्तायें रखीं। हम चिन्ता तो व्यक्त करते हैं, रोग को मिटाने का प्रयास तो करते हैं, परन्तु रोग किन कारणों से हुआ है, उसके निदान के बारे में प्रयास नहीं करते। आज हम जिन परिवारों में जाते हैं वहां 90 प्रतिशत परिवारों से सुनने को मिल जाता है कि स्वामी जी, बच्चे बिगड़ गये। समय खराब आ गया है। मैं आपसे एक बात कहता हूं कि समय तो जड़ है। आप उसको जैसा बनाना चाहेंगे वैसा वह बनेगा। परिवार का वातावरण आपके ऊपर निर्भर करता है तथा साथ हि हमारी शिक्षा पद्धति पर निर्भर करता है। विगत 67 वर्षों में हमें जो शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये थी, देश आजाद होने के बाद जिस प्रकार की शिक्षा पद्धति का निर्माण होना चाहिये था, उसका बहुत अभाव रहा। हम उसी धारा के पीछे बहते रहे जिसे मैकाले जैसे लोगों ने खड़ा किया था। उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ा। परिणाम यह निकला कि उसी के नीचे हम छटपटाते रहे, बाहर नहीं निकल पाये। अब समय आया है कि हम चिन्तन करें, मनन करें, बैठकर महर्षि दयानन्द पर सोचें, त्यागमूर्ति ऋषिवर ने जो बात कही थीं, वह गलत नहीं हो सकती। क्योंकि ऋषि हृदय जो होते हैं, वह युग-युगान्तर के बारे में सोचते हैं और उनका एक-एक वाक्य इस प्रकार का होता है जो मानव का निर्माण करता है। महर्षि दयानन्द ने जिस आर्ष पाठ विधि की बात की और उन्होंने उसे सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि इस पद्धति से यदि व्यक्ति विद्या प्राप्त करे तो पूर्ण विद्या प्राप्त कर सकता है। परन्तु आज सारे देश व विदेशों में जो हालात देखते हैं, वह सन्तोषप्रद नहीं है। अभी हमारे एक परिचित मित्र का बेटा जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता है, उसने एक घटना सुनाई।
एक बुजुर्ग व्यक्ति विश्वविद्यालय में आ रहे थे। आपकी दृष्टि बच्चों की वेशभूषा पर पड़ी। सभी लड़कियों ने जीन्स पहन रखी थी लेकिन एक लड़की उनसे अलग दिखाई दी । उसने साड़ी पहन रखी थी। उस व्यक्ति के मन में विचार आया कि मैं उस लड़की के पास जाकर उसको आर्शीवाद दूं। उसका धन्यवाद करूं। इस लड़की ने अपनी संस्कृति को बचाने का प्रयास किया है। परन्तु इस व्यक्ति को भय था कि दिल्ली का वातावरण है, मैं बुजुर्ग हूं कोई गलत बात न निकल जाये। उस व्यक्ति ने इस पर भी हिम्मत करके उस बच्ची के पास जाकर उससे कहा कि बेटी मैं तुझे आशीवाद देने को आया हूं। इस वातावरण में तू एक ही है, जिसने भारतीय संस्कृति को बचाया है। मैं तेरे को बहुत-बहुत आर्शीवाद देता हूं। वह लड़की मुस्काराई। थोड़ी दूर वह बुजुर्ग व्यक्ति गया। उसके बाहर जाने से पहले उसने उस लड़की को पुनः देखा। वो आगे-आगे चल रही थी। वह जैसे ही विश्वविद्यालय गेट से बाहर निकली, उसने बैग से सिगरेट निकाली और मुँह पर लगा ली। वह व्यक्ति कहता है कि मैंने विचार किया कि तेरे से तो जीन्स वाली लड़कियां ही अच्छी थी।
आज ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गई हैं कि हम जहां देखते हैं, वहीं दावानल सा दिखाई दे रहा है। परिवार या समाज, जहां कहीं भी है, कौन बचायेगा इसको। जब तक हम ऋषियों की परम्पराओं और उनके पथ पर नहीं चलेगें तब तक दुःख भोगने के अलावा हमारे पास कुछ नहीं होगा। उन कालेजों के अन्दर विद्यार्थियों की संख्या अधिक है जहां आवासीय विद्यालय हैं। आवासीय विद्यालयों को हम सुरक्षित समझते हैं परन्तु हम जैसी शिक्षा प्रदान कर रहे हैं उस पर विचार होना चाहिये। राजस्थान के मुख्यमंत्री हुआ करते थे श्री भैरों सिंह शेखावत। एक बार हम बैठे थे तो उन्होंने कहा, हमें साक्षरता का अभियान चलाना चाहिये। मैंने उन्हें कहा कि आप साक्षर बनाना चाहते हैं। ये जितने उग्रवादी है, इनमें कोई डाक्टर है, कोई प्रोफेसर है, कोई इंजीनियर है, क्या ऐसी साक्षरता देना चाहते हो। आवश्यकता मनुष्य को साक्षार बनाने की नहीं है, उस अक्षर के पीछे जो विद्या होनी चाहिये, उस अक्षर के पीछे जो ज्ञान होना चाहिये, वह ऐसा हो जो मनुष्य की आत्मा को परिष्कृत कर सके। उसके मन व बुद्धि को परिष्कृत कर सके। जब आचार्य यज्ञोपवीत संस्कार के समय ब्रह्मचारी को अपने पास बैठाता है, उसकी मन, बुद्धि व आत्मा का नाम लेकर कहता है कि मैं इनको पवित्र करता हूं। यही स्थिति वेदारम्भ संस्कार के समय में होती है। हम सन्ध्या करते हैं, सन्ध्या के समय में एक-एक अंग को स्पर्श करके भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि प्रभु मेरी वाणी, मेरी आंखें, मेरे कान, मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरी बुद्धि यह सब सम्पुष्ट, शुद्ध व पवित्र हो जायें। यह शिक्षा कहां मिलेगी। बच्चा 21 वर्ष व अधिक आयु का हो जाता है परन्तु उसको कुछ समझ में नहीं आता। अभी राजस्थान सरकार ने आकड़े निकाले हैं। उसके अनुसार एक बच्चे की पढ़ाई पर एक महीने का तीन हजार रुपये और एक साल में छत्तीस हजार खर्च आता है। इसके अतिरिक्त भवन, प्रयोगशाला आदि भी सरकार बनाकर देती है। खेल का मैदान बना कर भी देती है। यदि सभी खर्चो को जोड़ा जाये तो राजस्थान में एक बच्चे पर सरकार द्वारा एक लाख रुपये खर्च होते हैं। यहां गुरूकुल में आचार्य जी नाम मात्र का खर्च लेते होंगे। उनमें 20-25 प्रतिशत निःशुल्क भी होंगे।
मैं बड़े दावे के साथ एक बात कहा करता हूं कि बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों, आईआईएम जैसे बड़े-बड़े स्कूल-कालेज हैं, उनमें पास करके बच्चे जाते हैं पांच-पांच हजार रुपयों की नौकरियां ढूंढते फिरते हैं। लेकिन शायद ही भारत का ऐसा कोई गुरूकुल होगा जिसके स्नातक बनने के बाद जो विद्यार्थी निकलते हैं उनमें 90 प्रतिशत तक को जाब या काम न मिला हो। भारत का कोई आईआईटी या आईआईएम ऐसा नहीं है जिसने 90 प्रतिशत जाब का परिणाम दिया हो। केवल गुरूकुल पद्धति ही ऐसी है जिसमें पढ़ने वाला बच्चा बेरोजगार नहीं मिलेगा। दूसरी बात, गुरूकुल में पढ़े विद्यार्थियों के चरित्र की दृष्टि से 99 प्रतिशत अच्छे परिणाम आपको मिलेगें। केवल 1 प्रतिशत बच्चे जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के कारण भटकाव की स्थिति में आ सकते हैं। उनका खान-पान भ्रष्ट हो सकता है। गुरूकुल के 98-99 प्रतिशत बच्चों का आचरण अच्छा होता है। वह सभ्य नागरिक बनते हैं। अच्छे विद्वान बनते हैं। इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है। इसलिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि यदि हम देश के बच्चों और मानवता को बचाना चाहते हैं तो उसका एक ही तरीका है कि हम शिक्षा पद्धति को पुष्पित व पल्लिवित करें। हम इनके लिए अच्छे साधन जुटायें। स्वामी प्रणवानन्द जी जैसा व्यक्ति एक जगह बैठ जाये। वह इतना बड़ा निर्माण कर सकता है, परन्तु रात दिन उन्हें यह चिन्ता रहती है कि गुरूकुल के लिए भवन की व्यवस्था कैसे होगी? भोजन की व्यवस्था कैसे होगी? गुरूकुल को और बढ़ाने की व्यवस्था कैसे होगी?
मैंने मानव संसाधन मंत्री और सरकार से भी यह बात कही है कि बिना संस्कृत की रक्षा के आप संस्कृति को नहीं बचा सकते। जब तक संस्कृति नहीं बचेगी तो मानवता नही बचेगी। मैं आपसे एक बात कहना चाहूंगा कि जादू वह जो सर चढ़कर बोले। आगामी 21 जून को भारत सारी दुनिया को योग व इसके आसन करायेगा। पूरे देश के लोग भी योग और आसन करेंगे। योग संबंधी भारतीय संस्कृति का डंका पूरी दुनिया में बजेगा। (यह आयेाजन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुका है।) सबने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि भारतीय संस्कृति वा वैदिक संस्कृति का मूल जो योग है, वेद है, यज्ञ है, जब तक इनको नहीं अपनाओंगे, तब कि दुनिया बच नहीं पायेगी। सर्वे भवन्तु सुखिनः की यदि कहीं कामना की गई है, बताई जाती है व सिखाई जाती है, तो वह केवल वैदिक संस्कृति में पढ़ाई व सिखाई जाती है। मुझे इस गुरूकुल की स्थापना के 1 या 2 वर्ष बाद यहां आने का सौभाग्य मिला था। तब यहां 2 या 3 कमरों का ही निर्माण हुआ था। आज मैं आया हूं तो यहां का वातावरण देख कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मुझे स्वामीजी का स्नेह व आशीर्वाद मिलता रहता है। यह मुझसे आयु व ज्ञान में भी बड़े हैं। मैं तो कहता हूं कि इन आर्यसमाज के संन्यासियों की भावनाओं के फलीभूत होने पर, मैं आज जो हूं, वह बना हूं। मेरे पास तो कुछ था ही नहीं। मैंने तो बैंक खाता भी उस दिन खुलवाया था जिस दिन मैंने सांसद का पर्चा भरा था और यह सांसद के चुनाव का नामांकन पत्र भरने की आवश्यक शर्त थी। मेरा जैसा व्यक्ति जिस के पास अपना कुछ भी न था वह एक ऐसे व्यक्ति के विरोध में चुनाव लड़ा जिसने लगभग 40 करोड़ रूपये खर्च किये। मुझे यह अवसर आप सब मित्रों व संन्यासियों के स्नेह भाव के कारण मिला। श्री बलराम जाखड़ ने चुनाव लड़ा तो वह 3 लाख वोटों से जीते थे, चैधरी देवीलाल ने चुनाव लड़ा तो वह सत्तर हजार मतों से जीते थे। आपके इस सहयोगी ने चुनाव लड़ा तो वह 2 लाख 48 हजार मतों से विजयी हुआ। प्रश्न चुनाव का नहीं है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि लोगों ने मुझे प्यार दिया, स्नेह व आशीर्वाद दिया है, यह उसी का फल है। मेरा प्रयास रहेगा कि संसद या सरकार में रहकर मैं आर्य समाज तथा वैदिक धर्म के लिए पूरा-पूरा प्रयास करूंगा। यह मेरे लिए जरूरी भी है। आर्य समाज के ऋण से उऋण होने के लिए मेरा कर्तव्य बनता है। यहां गुरूकुल में मेरा जो स्वागत किया गया उसके लिए मैं आभारी हूं। मैं आप सबको बहुत-2 शुभकामना देता हूं। बड़ी दूर-2 से आप लोग आये हुए हैं और श्रद्धेय आचार्य जी ने इस गुरूकुल को तीर्थ बना दिया है। तीर्थ का अभिप्राय क्या है? विद्वानों का संग, वेदों का अध्ययन तथा कर्तव्य या व्रत पालन। यह तीनों कार्य यहां होते हैं। इस तीर्थ स्थान को हम और आप और भी आगे बढ़ायेंगे। इन शब्दों के साथ मैं अपने वक्तव्य को विराम देता हूं।
हम आशा करते हैं कि स्वामी सुमेधानन्द सरस्वती जी के सम्बोधन से पाठको कुछ उपयोगी बातें प्राप्त होंगी।
प्रस्तुतकर्त्ता: मनमोहन कुमार आर्य।
बहुत अच्छे प्रवचन !
नमस्ते महोदय। प्रवचन पढ़ने और पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। यदि किसी लेख पर कोई प्रतिक्रिया प्राप्त होती है तो लगता है कि लिखना सार्थक रहा। उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।