कविता

नारी की लाज भारी

बांकेबिहारी चितवन अनुपम अदा मुरारी
फिर से बुला रही है यमुना तुझे अरारी ||

मुरली बजाओं मोहन राहें विकल कछारी
तनमन तरस रहा है पयमाल राधाप्यारी
मेघा छलक रहा है पर्वत खिसक रहें है
लगता नहीं बचेंगे दुनियां के जीव धारी ||

आओं दरश दिखाओ अर्जुन की बेकरारी
देखों संवर रही है वही कौरव की सवारी
शकुनी की चाल मोहरे चौसर पे छा गए है
फिर दांव पर लगी है नारी की लाज भारी ||
बांके बिहारी चितवन अनुपम अदा मुरारी…………

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on “नारी की लाज भारी

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया ! लेकिन बाँके बिहारी के भरोसे बैठे रहना भी ठीक नहीं। हमें भी कुछ करना चाहिए।

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय विजय कुमार सिंघल जी, बिलकुल सही सर, रचना के माध्यम से वही काम तो किया जा रहा है बैठे कहाँ हैं | हाँ अभी हरकत में नहीं आये हैं जो संस्कार का आभारी है……

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