ग़ज़ल
तप कर दुखो की आंच में कुछ तो निखर गया
तू सीसा था की टूटकर जमी पर बिखर गया ।
लगती है पथ में ठोकर तो होती है तकलीफे
मिली ठोकरों पर ठोकरे और मैं सुधर गया ।
मंजिल का पता था और रास्तो की खबर थी
एक मोड़ ऐसा आया था ,और मैं किधर गया
चलते थे कभी राह में जो बनकर मेरे हमदम
आई आँधियाँ जब तेज वो भी पीछे ठहर गया
होती थी रोज चौखटो पर एक नई फरियाद
जब बात उसकी आई तो इन्साफ मर गया ।
खया था जख्म फिर भी दीखता नही था गम
खुशियां ही फैलती गई मेरा करवा जिधर गया ।
मंजिल है बड़ी दूर और मुश्किल भरे रस्ते
जो पार लेकर जाये वो हमदम किधर गया ।
धर्मेन्द्र पाण्डेय “धर्म “
बहुत शानदार गजल !