कविता

ज़िंदगी

कितनी शिकायते हैं
हमे ज़िंदगी से
सवाल रहते है हरदम
यह पाया वो नहीं
यह है पास मगर
वो क्यों नहीं ?
देखते रहते है सदा
खुद से बढ़कर लोगो को
क्यों अपने से नीचे
हम देखते नहीं ?
कभी गर जानना चाहो
सच्चाई ज़िंदगी की
तो चले जाना कभी
किसी अस्पताल में
देखना वहां
क्या सच क्या झूठ है
कैसी कैसी तकलीफे
सहते वहां लोग हैं
और कैसे मची
अस्पतालों में लूट है
एक वक्त का
खाना ठुकराकर भी लोग
भरते डॉक्टरों की जेब है
प्यारी लगती है जान
तब उस अपने की
दिखती न कही
तब अपनी तब भूख है
लबो पर आती है
बस यही दुआ तब
ले लो चाहे अब
मेरी सारी खुशियाँ
बख्श दो बस मेरे इस
अपने की जान या रब ।
प्रिया

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]