गजल
बेंच कर के जेवरों को माँ पढ़ाती थी मुझे
भर दिया दामन ख़ुशी से जब मुझे मौका मिला ।
चाहतो के गाँव में लौटा सनम था बेखबर
लोग पल में भूल जाते है वफ़ा तो क्या मिला ।
रूठ कर भी यार मेरे भूल पाये जब नही ।
प्यार को दिल में छिपाने से भला फिर क्या मिला
देखती थी प्यार के सपने हमारी भी नजर
आँख जब खोली तो देखा अश्क खारा सा मिला ।
रेत के मैदान में था घर हमारे यार का
बारिसो की चाह में था पर उसे सूखा मिला ।
ख्वाहिसे , की थी महल की ,पर नही तकदीर में ।
हार कर बैठा अगर तू ,तो तुझे फिर क्या मिला ।
— धर्मेन्द्र पाण्डेय