गजल
काटती थी बला ,फूंकती थी दुआ
अब धरा पर कही माँ नही दोस्तों ।
ख़त तुम्हारे सभी जब बहाने पड़े
रो पड़ी साथ मेरे नदी दोस्तो।
मांगता ही रहा मैं खुदा से उसे
पर खुदा ने न मेरी सुनी दोस्तो।
नून रोटी जुटा कर ढली है उमर
जिंदगी खा गई बन्दगी दोस्तों ।
बात दिल की उसी से छुपानी पड़ी
कहते थे हम जिसे जिंदगी दोस्तो।
फेर लो ये निगाहें ,न देखो हमे
बात पढ़ते हैं सब आँख की दोस्तों।
बारिसो की तरह सीरते यार की
वो न आई मची खलबली दोस्तों ।
बट गया देश तो ये अलग बात थी
प्रेम की ना कभी हो कमी दोस्तों ।
प्यार की राह इतनी सरल भी न थी
लोग जाने मची खलबली दोस्तों ।
छोड़ कर झोपड़े को चले थे उधर
नींद उनको महल में खली दोस्तों ।
देख कर फेर ली क्यों निगाहें सनम
बात पढ़ते हैं सब आँख की दोस्तों ।
— धर्मेन्द्र पाण्डेय