ग़ज़ल : मुल्क तेरा बेवफा सा हो गया है
फिर कोई चेहरा बुझा सा हो गया है ।
हौसलों का घर जला सा हो गया है ।।
हौसलों का घर जला सा हो गया है ।।
जंगे आजादी लडो मत रिश्वतों से ,
मुल्क तेरा बेवफा सा हो गया है।।
रोज खबरे चल रही है मोल पर।
मीडिया का यूँ तमाशा हो गया है ।।
कार्यालय में लुटी इंशानियत है ।
आदमी जो दो टका सा रो गया है ।।
जो इमानो का मसीहा था बना ।
वो वतन में अब अमन सा खो गया है ।।
हर तरफ फंदे बिछे हैं जाल के ।
फिर घना देखो कुहासा हो गया है।।
ये मसालें बुझ न जाएँ फिर कहीं ।
क्यों लगा है तू थका सा सो गया है ।।
उनके हक में सीट है उतनी फतह।
जो यहां जितना जहर सा बो गया है।।
भ्रष्टता में जो हुआ अव्वल यहां।
वह शहर का मुस्तफा सा हो गया है।।
— नवीन मणि त्रिपाठी