काश ! तुम होती. . .
पार्क में
अकेला बैठा हूँ
बिलकुल तनहा
स्मृतियाँ, हिचकोले खा रही हैं ।
याद है !
हम-तुम
बैठे थे यहीं
पार्क के किसी कोने में ।
अचानक बरसने लगा था बदरा
कड़कने लगी थी बिजलियाँ ।
तुम चिपक गयी थी मुझसे
बहुत देर तक ।
शायद ! डर गयी थी
बिजली की कड़कती आवाज से ।
आज भी कड़क रही बिजली
हो रही बरसात
सब कुछ तो है
लेकिन तुम नहीं हो
काश ! तुम होती ।
अच्छा लगता
बिजली का कडकना
और बरसात में भींगना
झूमता दादुर जैसा
नाच उठता मयूर सा ।
@ मुकेश कुमार सिन्हा, गया