कविता

मानव

स्वार्थ की गुलेल में
सधा कंकड़
जाने-अनजाने
छीलता रहा
रिश्तों की पोर
और बेधता रहा
सीना अहसासों का

वे अहसास
जो शायद अब
प्यार की संज्ञा पा चुके हैं
हाँ वही।

जान गया हूँ
फायदा उठाना
कच्चे नाजुक
वादों का

हाँ
किसी भी तरह
अपना पथ निशंक करता
मैं हूँ-

सृष्टिकर्ता की सर्वोत्तम कृति
‘मानव’।।

******रितु शर्मा******

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

One thought on “मानव

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सुंदर रचना

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