व्यंग्य कविता : मैं भारत हूं…
अब भी शेष है,
संस्कृति वस्त्र तन पर,
अमीरी उसे हटा दो..
मैं भारत हूं,
संस्कृति का पुरोधा मुझे लुटा दो…!
क्या गीता क्या रामायण,
क्या राम क्या नारायण,
पुराणों को मिटा दो…
मैं भारत हूं,
संस्कृति का पुरोधा मुझे लुटा दो…!
साहस को कायरता से,
प्रेम को दुत्कार से,
अहिंसा को हिंसा से,
धैर्य को चीत्कार से,
बदल लो और बेशर्मी से सटा दो,
मैं भारत हूं,
संस्कृति का पुरोधा मुझे लुटा दो…!
हाय! मैं दोनों ओर से धीरे-धीरे कट रहा,
अंग-अंग कट-कट कर मेरा,
कितने भागों में बँट रहा,
रे कपूत! अब एक कृपा कर,
मेरी अर्थी दो हाथ उठा दो…
मैं भारत हूं,
संस्कृति का पुरोधा मुझे लुटा दो..!
पहले मैं परिचायक था,
संस्कारों का, गरिमा का,
अब मैं केवल राजनीति का,
गढ़ हूं नीम हकीमों का,
कैसी शिक्षा कैसी नीति,
बच्चों को बस पाठ रटा दो,
मैं भारत हूं,
संस्कृति का पुरोधा मुझे लुटा दो..!