कविता : ज़िंदगी
गुज़रती हूँ हर घड़ी
किसी अग्निपरीक्षा से…
करता है मेरा ही मन मुझे खाक
आदत तो कभी नहीं रही
यूँ हार मानने की
कैसी थकान है,
सब कुछ हार जाने जैसी…
कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी….
ना कह पाने की विवशता
ना खुद को बदल पाने का हौसला
यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या ??
जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?
कर्ण को मिले शाप जैसी….
ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी…
क्या खो गया है
अाखिर किस तलाश में
इतना भटक रही हूँ…
क्या चाहिये अाखिर?
नहीं रही उम्र भी तो
सवाल पूछने की …
कुछ तो जवाब होने चाहिये
मेरे पास जिन्दगी के…
धोखा सा लगता है…
जैसे तीर धँसा हो कोई…
अाखिर जिये जाने का
कुछ तो हो सबब !
***रितु शर्मा****