विश्व हिन्दी सम्मेलन और हम
यह प्रसन्नता की बात है कि दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन आगामी 10-12 सितम्बर को मध्यप्रदेश की भोपाल में होने जा रहा है। सरकार की ओर से इसे एक यादगार अवसर बनाने के लिए व्यापक इंतजाम किये जा रहे हैं। विश्व सम्मेलन है तो स्वाभाविक है कि दुनिया भर के प्रतिनिधि भी आएगे। ऐसे में हमें यह भी समझना चाहिए विश्वभर के हिन्दीप्रेमी केवल अपनी और अपनों की यशोगाथा सुनाने अथवा दूसरों भाषणों पर तालियां बजाने के लिए नहीं बल्कि अपनी आंखो से देखने के लिए आ रहे है कि भारत में हिन्दी की दशा क्या है। ऐसे में हमे अपने आप से पूछना चाहिए कि देशभर के बाजारों में लगे बोर्ड कहीं विदेशी भाषा के तो नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारतीय भाषाओं पर विदेशी भाषा हावी है? हमें इस बात का उत्तर भी तैयार रखना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि हमारे पास राष्ट्रगान है, राष्ट्रध्वज है, राष्ट्रीय प्रतीक है, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी तो हैं. लेकिन दुनिया के अन्य देशो की तरह राष्ट्रभाषा नहीं है। क्योंकिं उच्च न्यायालय के बहुचर्चित फैसले के अनुसार- ‘हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं वह सिर्फ राजभाषा है।’
हमारे यहां शिक्षा का माध्यम हिन्दी की बजाय हमे गुलाम बनाने वालो की भाषा क्यों है? 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया था ‘15 वर्षो पश्चात (1965 से) हिंदी अंग्रेजी का स्थान पर राष्ट्रभाषा के साथ-साथ भारत की राजभाषा भी बन जाएगी।’ आखिर ये 15 वर्ष इतने लम्बे क्यों हो गए? बाद में राजनैतिक लाभ के लिए 15 वर्ष वाले प्रावधान को असंभव जैसा बनाने वाले स्वयं को किस अधिकार से हिन्दीभाषी कहते हैं? हिन्दी में वोट मांगने वाले कुर्सी पर बैठकर अंग्रेज क्यों बन जाते हैं? हमारा नैतिक बल इतना रसातल में क्यों चला गया कि देश का राजकाज चलाने वाले नेताओं और अफसरशाहों की कथनी और करनी के अंतर को हम समझ कर भी खामोश क्यों रहते हैं? कुछ स्थानों पर हिंदी भाषियों पर अत्याचार के समाचार और दूसरी ओर सभी भारतीय भाषाएं सहोदर है जैसी उक्ति आखिर क्या है? सहोदर बहनें एक-दूसरे को हटाने- धकियाने में लगी रही तो इनके बदले आप उस भाषा को हावी होने से कैसे रोक सकते है जिसने 250 वर्षो तक इस देश को गुलाम बनाये रखा? ज्ञान आयोग पहली कक्षा से अंग्रेजी शिक्षा की सिफारिश करता है। जिसके विरोध में कोई सशक्त आंदोलन तो दूर मौन आम सहमति दिखायी दे रही है। हिन्दी को देवनागरी के बदले रोमन अपनाने की सलाह देने वाले सम्मान पा रहे हैं। इस पर भी हम स्वयं को हिन्दी का सबसे बड़ा तीर्थ बताये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा।
क्या हमारे पास इस बात का कोई जवाब है कि आप महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करते हैं। हर कार्यालय में उनका चित्र विराजमान है तो हर नोट पर भी उनका चमकदार मुखमुद्रा है परंतु आपने अपने राष्ट्रपिता की वह बात क्यों अपने मन-मस्तिष्क पर क्यों नोट नहीं की जो 15 अगस्त 1947 की सुबह बी.बी.सी. को दिए इंटरव्यू में गांधी जी कही थी, ‘कह दो दुनिया वालो से, गांधी अंग्रेजी भूल चुका है।’ वे अवसर कहा करते थे, ‘अगर एक दिन के लिए भी देश की सत्ता मेरे हाथ में आ जाए तो मैं इस देश से विदेशी माध्यम की शिक्षा का अंत कर दूं।’
हमारे पास इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्र भारत के नागरिको को अपनी भाषा में न्याय पाने का भी अधिकार क्यों नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि भारतीय संविधान की धारा 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है। अनेक भारतीय भाषाओं का ज्ञाता विद्वान भी न्यायालय में अधूरा है अगर उसे गुलामी की भाषा नहीं आती।
कहने को हिन्दी अनेक राज्यों की राजभाषा है लेकिन प्रशासन के कामकाज की वास्तविक स्थिति इससे भिन्न हैं। कम्प्यूटर पर हिन्दी का आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है परंतु स्वयं विश्व हिन्दी सम्मेलन की ऑनलाइन पंजीकरण सेवा में हिन्दी का उपयोग नहीं किया जा सका। समाचार पत्रों के पजींकार कार्यालय की वार्षिक विवरणी हिन्दी में भरने के दावे तो हैं लेकिन वास्तविकता कुछ और है। देश की राजधानी दिल्ली से जारी वाहन चालक लाइसेंस में एक शब्द भी हिन्दी का न होना हिन्दी प्रेमियों को करारा तमाचा है। आज भी हिंदी के लिए यूनिकोड (इन्स्क्रिप्ट) को अनिवार्य नहीं बनाया गया
उच्चशिक्षा में हिन्दी की स्थिति दयनीय कही जा सकती है तो गली-गली खुलते दबड़ेनुमा अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बढ़ती संख्या के चलते हिन्दी की भविष्य की तस्वीर क्या होगी। आम बोलचाल की भाषा में भी अग्रेंजी शब्दों की घुसपैठ हो रही है क्योंकि कुछ प्रकाशन संस्थान और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पूरी निष्ठा से ‘हिन्दी हटाओं’ में लगे हैं और हम टुकर-टुकर देख रहे हैं।
हिन्दी बहता नीर है। पतितपावनी गंगा है। अनेक बोलियां इस गंगा को सदानीरा बनाए रखती है लेकिन इन बोलियों को हिन्दी के विरूद्ध खड़ा करने की साजिश हिन्दी को बमजोर करने के अभियान का हिस्सा है जिसके परिणाम भी आने लगे है। पिछले दिनों विकीपीडिया द्वारा जारी विश्व की सौ भाषाओं की एक सूची में बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिन्दी को चौथा स्थान दिया गया है. इसके पूर्व चीनी भाषा प्रथम और हिन्दी को दूसरा स्थान प्राप्त था। दूसरे से चौथे स्थान पर लुढकने का कारण भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को स्वतंत्र भाषा के रूप में शामिल किया गया है। हम जाने-अनजाने हिन्दी को कमजोर कर अंग्रेजी को भारत की सबसे बड़ी भाषा बनाने के अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र का शिकार हो रहे हैं। हिन्दी केवल एक भाषा नहीं बल्कि इस देश की सांस्कृतिक चेतना है। एकता की गारंटी है। सदभावना की रीढ़ है। दुर्भाग्य की बात है कि हम आसानी से उनके बिछाये जाल में फंस रहे है।
यहां हमारा अभिप्राय किसी बोली अथवा भाषा को उपेक्षित रखने का नहीं है। हर बोली-भाषा का विकास होना चाहिए कयोंकि हरेक का अपना महत्व है। उसके साथ हजारो वर्षों की उसकी विरासत जुड़ी है। दो-चार नहीं सभी बोलियों- भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया जाए लेकिन हिन्दी को उस सूची से निकाल कर राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए। देश भर में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा में दी जाय और द्वितीय भाषा के रूप में संघ की राजभाषा हिन्दी को रखा जाये।
भारत की अधिकांश जनता हिन्दी बोल अथवा समझ सकती है। देश भर से प्रकाशित होने वाली समाचार पत्रों तथा पत्रिका में हिंदी के पाठको की संख्या सर्वाधिक है। इंटरनेट पर हिंदी बहुत तेजी से बढ़ रही है। विश्व के 150 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है। पिछले दिनों अपने चैन्नई प्रवास के दौरान हिंदी सेवी प्राध्यापक डॉ. आशीर्वादम् ने अपने कालेज की हर कक्षा के दौरान सैंकडों छात्रों को ध्वनि विस्तारक यंत्र से पढ़ाने के अपने अनुभव का उल्लेख किया। देश के अधिकांश स्थानो पर भ्रमण के दौरान इन पंक्तियों के लेखक को हिंदी बोलने के कारण कभी-कहीं कोई असुविधा नहीं हुई। सत्य तो यह है कि देश का अभिजात वर्ग अनावश्यक से हिंदी के प्रति हीन भावना उत्पन्न कर अंग्रेजी के प्रति उच्चभाव पैदा करने का दोषी है। दुखद आश्चर्य कि बात तो यह है कि यह वर्ग मूलतः हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही पैर पसार रहा है।
इस सत्य के कौन इंकार कर सकता है कि हिंदी को समृद्ध बनाने तथा इसे प्रतिष्ठित करने में अहिंदी भाषी महापुरूषों का बहुत अधिक योगदान है। पंजाब में गुरूओं ने हिंदी के लिए बहुत कार्य किया। श्री गुरूग्रन्थ साहिब में इसकी स्पष्ट छाप देखने को मिलती है तो श्री गुरू गोबिंद सिंह के ग्रन्थ ‘रामावतार’ एवम् ’कृष्णावतार’ हिंदी साहित्य और इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयांनद, गांधी जी (गुजरात), सुभाष बोस, बंकिम चंद्र चटर्जी रविंद्रनाथ टैगोर (बंगाल), तिलक (महाराष्ट्र), लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज (पंजाब) जैसे कुछ नाम उल्लेखनीय है जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी पर वे स्वयं हिंदी के ध्वज वाहक रहे है।
देश के हिन्दीतर भाषी राज्यों में राजनीति के कारण हिन्दी विरोध अब क्षीण होने लगा है। पिछलें दिनों तमिलनाडू में नये सचिवालय के निर्माण के बाद श्रमिकों के एक उत्सव में तत्कालीन मुख्यमंत्री की उपस्थिति में हिन्दी लोकगीत, नृत्य आदि प्रस्तुत किये गये तो मुख्यमंत्री भी उनकी धुन पर धिरकने लगे। दक्षिण तथा उत्तर पूर्व के राज्यों में हिन्दी सीखने बालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है लेकिन हिन्दी बेल्ट (उत्तर भारत) हिन्दी के प्रति हीनभावना का शिकार है। हर व्यक्ति टूटी-फूटी गलत ही सही लेकिन अंग्रेजी के दो बोल बोलने में शान महसूस करता है। गली- गली दबड़ेनुमा ’कानवेंट’ स्कूल खुल रहे हैं जहाँ बच्चे को उसकी भाषा- संस्कृति के विमुख करने के सभी साधन उपलब्ध हैं। हिन्दी को कमजोर करने में हम स्वयं महती भूमिका निभा रहे हैं। आज हरियाणवी, राजस्थानी, ब्रज, बुंदेलखंडी, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बनाकर खड़ा किया जा रहा है ताकि हिन्दी को इनसे लड़ाया जा सके।जबकि इनमें अंतर मामूली है। उदाहरण के तौर पर ‘क्या’ शब्द को ही लीजिए। इसे पंजाबी में – की, हरियाणी में – के, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी में- का, राजस्थानी में काई कहा जाता है। सभी जगह व्यंजन ‘क’ है जिसपर क्षेत्रीय प्रभाव के कारण ‘स्वर’ थोड़ा भिन्न है। हिन्दी को इन सभी बोलियों से बल मिलता रहा है। ये सभी हिन्दी रूपी गंगा को प्रवाहमान बनाये रखने में सहायक नदियां हैं। इनका गंगा से बैर न था, न है और ही हो सकता है।
इस देश की संस्कृति से जुड़े अधिकांश ग्रंथ हिंदी में होने के कारण देश को जानने के लिए हिंदी की जानकारी बहुत जरूरी है। हिंदी को जाने बिना इसे नकारता बहुत आसान है पर इसका ज्ञान हासिल कर इसके गुणों का रसस्वादन करने वाला कोई भी मनुष्य इसकी वैज्ञानिकता का कायल हुए बिना नहीं रह सकता। जो लोग मौका-बेमौका ‘हिन्दी को सरल बनाओ’ जैसे नारे लगाते हैं उनसे यह जानना भी समचीन होगा कि वे जिस अंग्रेजी के भक्त हैं ,क्या पिछले तीन सौ वर्षों के दौरान अंग्रेजी के सरलीकरण की बात कभी उठी है। जबकि वास्तविकता यह है कि विशेषज्ञ भी अंग्रेजी के मानक शब्दों का ठीक से उच्चारण नहीं कर पाते। उनके सामान्य एवं विशेष अर्थ में अंतर नहीं कर पाते। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी को अनावश्यक रूप से महिमा मंडित करने के लिए इस प्रकार के नारे तैयार किए जाते हैं। हमें ऐसे लोगों से बचना होगा।
हमारे कुछ हिंदी समाचार-पत्र भी अपनी भाषा को लगातार इतना विकृत करते जा रहे हैं कि इसे हिंदी की बजाय -हिंग्लिश’ कहना ही ज्यादा ठीक होगा। आज बच्चे नमस्कार, सतश्री अकाल, वाणकम नहीं, -गुडमार्निंग’ करते हैं। वे उन्हतर को नहीं जानते, सिक्सटी नाइन समझते हैं क्योंकि उन्हें किसी ने एक दो तीन सिखाया ही नहीं, वे तो वन टू थ्री के कायल हैं। हिंदी के स्थान पर पसरती अंग्रेजी हमारी बोलचाल, रहन-सहन ही नहीं हमारे सांस्कृतिक मूल्यों और रिश्ते-नातों को भी अपनी चपेट ले रही है, तभी तो आज ताऊ-चाचा- मामा-फुफा-मौसा आदि अंकल बन चुके हैं
हिंदी की लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक है। उनका एक निश्चित उच्चारण है। जो लिखा गया है, वही बोला-पढ़ा जा सकता है। बीयूटी-बट और पीयूटी-पुट जैसी विसंगतियां यहाँ देखने को नही मिलती। एक-एक शब्द के ढ़ेरो पर्यायवाची केवल हिंदी में ही उपलब्ध है। दुनिया हिंदी के समृद्ध स्वरूप से प्रभावित हो रही है पर हम…? एक साधारण खिलाड़ी, नेता, अभिनेता थोड़ी सी सफलता प्राप्त करते ही अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझता है। शुद्ध हिंदी बोलने की बजाय अशुद्ध अंग्रेजी बोलने वालों को कोई कैसे समझाये कि अपनी माँ को दुत्कार कर, पराई माँ को सिर आंखों पर बैठाने वाले चापलूस-चटुकार बेशक माने जाए पर उन्हें कोई योग्य पुत्र तो क्या योग्य इंसान भी मानने को तैयार नहीं होगा। अग्रेंजी को सीढी बनाकर आसमान की ऊचांईयां छूने का अरमान पालने वाले को क्या यह याद दिलाना जरूरी है कि कोई भी सीढ़ी जमीन से जुड़ी दीवार या छत्त पर ही लगाई जाती है, उसे आसमान या हवा में कहीं नहीं टांगा जा सकता।
यदि हिन्दी की उपेक्षा करने, इसे हीन भावना से देखने और प्रतिष्ठा का प्रतीक न मानने वालों का एक नासमझ वर्ग है तो हिन्दी सेवियों, हिन्दी में आस्था रखने वाले प्रशासकों, हिन्दी कार्यकर्ताओं, हिन्दी लेखकों- साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा समझदार वर्ग भी है, जो अपने ही तप से हिंदी की सेवा करते हुए उसके ध्वज को सबसे उंचा रख कर यह घोष करता है, ’हिन्दी अभी भी वीर विहीन और विचार विहीन नहीं हुई है।’
यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारा अभिप्राय यह हर्गिज नहीं कि हम अन्य भाषाओं को भूल जाए या उनसे दूर रहें। अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना, उनसे ज्ञान अर्जित करना हम सभी का अधिकार है पर अपनी राष्ट्रभाषा की कीमत पर नहीं। मेरी स्वयं की मातृभाषा हिंदी नही है लेकिन हिंदी मेरी मातृभूमि की भाषा है। मुझे देश से जुड़ने का अवसर हिंदी ने दिया। हिंदी में कार्य करते हुए मुझे ही नहीं, अधिकांश देशवासियों को जो सुविधा, सरलता और आत्म संतुष्टि होती है, वह किसी अन्य भाषा में नहीं होती।
— डॉ. विनोद बब्बर
संपर्क– 09868211911
संपादक– राष्ट्र किंकर
मुझे कुफ्त तब होती है जब
स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनायें लोग इंग्लिश में देते है
सार्थक लेखन
सोग भेडचाल में फँस जाते हैं।