कहानी -गुरु का कर्तव्य बोध
प्रात:कालीन होने वाली सभा में इषिता को शुद्ध उच्चारण एवं धाराप्रवाह रूप में बोलते हुए देखकर हिन्दी अध्यापिका नेहा बेदी हैरान रह गयीं।वह सोचने लगी कि अगले सप्ताह होने वाली हिन्दी भाषण प्रतियोगिता में यदि इषिता ने भाग ले लिया तो वह अवश्य ही प्रथम पुरस्कार की विजेता होगी फिर मेरी बेटी रश्मि का क्या होगा..?इसी सोच में डूबे देख गणित अध्यापिका नीति बोली,”अरे,नेहा मैंम कहाँ खो गयीं आप …तालियों की आवाज़ तो सुनिए ? ” अरे हां, सच में ही इषिता ने अच्छा बोला।
अभी तक कोई भी प्रतियोगिता रही हो,चाहे खेल कूद हो,गायन हो,नृत्य हो या पेन्टिंग की ही क्यों न हो,सभी में विजेता रश्मि ही रही है।पर अब लगता है इषिता का पलड़ा भारी रहेगा । नेहा मैडम सारा दिन इसी चिन्ता में डूबी रहीं ।
इषिता ने कक्षा आठ में प्रतिभाशाली छात्रा के रूप में प्रवेश लिया था।मां सरस्वती की उस पर विशेष कृपा थी।स्वभाव से विनम्र,पढ़ाई में अव्वल रहने के साथ-साथ खेल कूद,चित्रकला, गायन,नृत्य,वाचन आदि गुणों से भरपूर थी।हर क्षेत्र में रूचि देखते हुए उसे इस वर्ष की “मार्शल गर्ल” भी बना दिया गया था।जबकि अब तक
विद्यालय की सर्वश्रेष्ठ छात्रा के रूप में रश्मि ही थी,इसी कारण वह अहंकारी भी होती जा रही थी।
सभा समाप्त होने के पश्चात् मिसेज शर्मा ने उनसे पूछा,”कैसा लगा इषिता का वक्तव्य ?कितना शुद्ध उच्चारण और स्टेज कान्फीडेंस भी था!”
“बोला तो बहुत अच्छा है,पर बीच -बीच में अटक भी रही थी” अनमने मन से नेहा जी बोली॥
“नेहा जी मेरे विचार से तो इषिता को होने वाली प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए ।” मिसेज शर्मा ने कहा।
“पर, प्रतिभागियों का चयन तो हो चुका है।एक टीम में दो विद्यार्थी होंगे और दोनों ही अच्छा बोलते हैं …विषय भी बहुत कठिन है,चार पांच दिन में तैयारी करना भी इषिता के लिए कठिन होगा,फिर याद करके अभ्यास भी करना ,कोई आसान बात नहीं है।” मिसेज बेदी को आशंका थी कि अब तक की प्रतियोगिताओं में प्रथम रहने का अधिकार उनकी बेटी रश्मि से छिन न जाए।
गत वर्ष की भांति इस बार भी शिक्षक दिवस पर भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा था,जिसमें नगर के जाने -माने पन्द्रह-बीस स्कूल भाग ले रहे थे।हिन्दी अध्यापिका के ऊपर ही इस आयोजन की जिम्मेदारी थी।उन्हें ही विद्यार्थियों का व विषय का चयन करना था।मंच का सारा दायित्व इस दिन छात्र संभालते थे॥
उनके मन की दुविधा व चेहरे पर छाए ईर्ष्या के भाव साफ दिखाई दे रहे थे।अन्य अध्यापक जानते थे कि इषिता का भाषण मैडम की बेटी पर भारी पड़ेगा।न चाहते हुए भी उन्हें इषिता का नाम अतिरिक्त छात्रा के रूप में प्रतियोगिता के लिए देना पड़ा।परन्तु विषय चयन व वक्तव्य तैयार करने में उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखाई ।अनमने मन से खानापूर्ति की और एक कागज देते हुए कहा,” इसे याद कर लेना,कहीं ऐसा ना हो कि हमारे विद्यालय की नाक कट जाए।पुरस्कार चाहे ना मिले पर प्रस्तुति अच्छी होनी चाहिए ।”
“ठीक है मैम,मैं पूरी कोशिश करूंगी ।” कागज हाथ में लेते हुए धन्यवाद कहा।कहते हैं प्रतिभा किसी की गुलाम नहीं होती,,उसी प्रकार इषिता को मैंम के लिखे भाषण पर निर्भर नहीं रहना पड़ा,जब उसके पापा ने उसे भाषण तैयार करते हुए देखा तो उन्होंने उसे भाषण देने की कला सिखाई एवं मुख्य तत्वों से अवगत कराया। प्रतियोगिता में तीन दिन ही शेष रह गये थे।स्कूल से आकर हर रोज एक घण्टा वह बोलने का अभ्यास करती।विद्यालय में नेहा मैडम प्रतिदिन अन्य बच्चों को बोलने का अभ्यास करवाती,पर इषिता की ओर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया ।हां, ….जब भी इषिता पर नजर पड़ जाती तो उनका एक ही वाक्य होता,’तैयारी कर रही हो ना….!’
उनका व्यवहार अन्य अध्यापकों से छिपा नहीं था।वे हर समय अपनी बेटी रश्मि की प्रशंसा में गीत गाती रहतीं और कहतीं कि रश्मि बहुत मेहनती है,जब तक अपने पापा को दो तीन बार अपना तैयार किया हुआ विषय नहीं सुना देती,तब तक उन्हें सोने नहीं देती।
आखिरकार प्रतियोगिता का दिन अर्थात् शिक्षक दिवस भी आ गया।अन्य विद्यालयों के छात्र -छात्राएं भी पहुँच चुके थे।मंच सजाया जा चुका था।नियमानुसार मंच संचालन छात्र ही कर रहे थे।मुख्य अतिथि को साथ लेकर प्राचार्या महोदया मंच पर अपना स्थान ले चुकी थीं।
कार्यक्रम का शुभारम्भ माँ शारदे की वन्दना से हुआ।छात्र संचालक ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए क्रम से प्रतिभागियों को मंच पर आमन्त्रित करना शुरू किया एक से बढ़कर एक प्रतिभागी थे।तभी मंच से रश्मि का नाम पुकारा गया।रश्मि धीरे -धीरे मंच की ओर जाने लगी ।उसके चलने की गति में अहंकार स्पष्ट दिखाई दे रहा था॥
रश्मि ने जैसे ही बोलना शुरू किया तो सभागार में सभी श्रोता शान्त होकर सुनने लगे।रश्मि की सहेलियां आपस में बात करने लगी ,”देखना इस बार भी रश्मि ही विजेता होगी।” उसी समय रश्मि द्वारा एक ही पंक्ति को बार-बार दोहराये जाने पर सबका ध्यान उस ओर गया और श्रोताओं में खुसर-फुसर शुरू हो गयी ।रश्मि रटा हुआ भाषण भूल गयी थी।मिसेज नेहा बेदी को अभी भी विश्वास था कि उनकी बेटी स्वयं को इस स्थिति से बचा लेगी।पर ऐसा नहीं हो सका ।श्रोताओं के बीच बैठीं इषिता की सहेली प्रिया बोली, “इषिता, इस बार का पुरस्कार तुम्हें ही प्राप्त करना है।बेदी मैंम को भी पता चल जाए कि उनकी बेटी से अधिक प्रतिभाशाली कोई और भी है।वे शुरू से ही तुम्हें कुछ नहीं समझती”!
“नहीं प्रिया, हमें अपने अध्यापकों के विषय में कभी ऐसा नहीं सोचना चाहिए । वे हमारे गुरु हैं, हमारे मार्गदर्शक हैं, हमारे भले बुरे की पहचान है उन्हें ।”
” फिर वे तुम्हें प्रतियोगिता में भाग लेने से क्यों रोक रही थी ।” प्रिया बोली।
“हो सकता है,मैंम ने कूछ सोच कर ही मना किया हो,,क्योंकि यह हमारे विद्यालय की प्रतिष्ठा का भी प्रश्न था।पर मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है ।यह क्या कम है कि उन्होंने मुझे अतिरिक्त छात्रा के रूप में प्रतिभागी बनने का अवसर दिया,क्योंकि टीम का चयन तो हो ही चुका था।” कहते-कहते इषिता रुक गयी और अपने नाम की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही दूरी पर पीछे खड़ी मैडम नेहा बेदी जी ने अपने विषय में इषिता के विचार सुने तो स्वयं पर ग्लानि हुई। वे सोचने लगीं इषिता ने आज शिष्य होने का धर्म निभाया है ,पर क्या मैं अपना धर्म निभा पाई ?मैं गुरु होने का दायित्व नहीं निभा सकी।” यही सोच सोचकर वे स्वयं को लज्जित महसूस कर रहीं थी ।उन्होंने स्वार्थ की पट्टी अपनी आंखों पर बांध रखी थी,जबकि गुरु की दृष्टि में सब छात्र समान होने चाहिएं।अभी तक माँ के स्वार्थी रूप ने उन्हें घेरा हुआ था ।उसी क्षण उन्होंने मन में संकल्प लिया कि आज से गुरु होने का दायित्व निभाएगी।
उसी समय मंच से इषिता के नाम की अंतिम प्रतिभागी के रूप में घोषणा हुई। मंचसंचालक छात्र ने कहा,” अब आपके सामने जो छात्रा अपना वक्तव्य प्रस्तुत करने जा रही है वह है-“भारतीय संस्कृति में गुरु -शिष्य परम्परा “।इषिता का नाम सुनते ही श्रोताओं ने करतल ध्वनि से अपनी प्रसन्नता व उत्साह से उसका स्वागत किया।
हिन्दी अध्यापिका बेदी मैंम ने भी हृदय से अपनी शुभकामनाएं देते हुए विजेता होने का आशीर्वाद दिया।पांव छूते हुए अपनी अध्यापिका की आंखों में अपने प्रति आत्मीय भाव देखकर उसकी आंखे नम हो गयी और आत्म विभोर हो उठी।मिसेज नेहा बेदी की आंखें भी सजल हो गयी।
मंच पर पहुंचकर सबको अभिवादन करके जैसे ही उसने बोलना शुरू किया तो सभी श्रोता सांस रोके एक -एक शब्द को ध्यान से सुनने लगे।धारा प्रवाह एवं प्रभावशाली वक्तव्य सुनकर सब मंत्रमुग्ध हो गये॥इषिता ने गुरु -शिष्य परम्परा की बदलती स्थिति पर जो विचार प्रस्तुत किए जिन्हें सुनकर शिक्षक व विद्यार्थी स्वयं को अपने-अपने मन की तराजू में तौलने लगे। इषिता ने कहा-” आज के परिवेश में गुरु व शिष्य दोनों ही अपने कर्तव्य क्यों भूलते जा रहे हैं?आज की युवा पीढ़ी यदि चाहती है उसका कल्याण हो और उनका मार्ग सरल व प्रशस्त हो,तो आवश्यकता है अपने गुरु को उस शिखर पर प्रतिस्थापित करने की जहां से उनका वरद हस्त सदैव आशीर्वाद के रूप में उन पर बना रहे।हमें पुन:अपने भारत की संस्कृति की गुरु -शिष्य परम्परा का निर्वाह करना होगा।” गुरु नमन के साथ जैसे ही अपनी वाणी को विराम दिया तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार देर तक गूंजता रहा।
परिणाम घोषित होने पर इषिता को प्रथम पुरस्कार मिला।मुख्य अतिथि व प्रधानाध्यापिका ने बधाई देते हुए इषिता के गले में पदक पहनाया और प्रशस्ति पत्रदेते हुए बधाई दी।इषिता ने अपनी हिन्दी अध्यापिका के जैसे ही चरण स्पर्श किए तो उन्होंने उसे गले लगाकर आशीर्वाद और बधाई दी।आभार व्यक्त करते हुए इषिता ने कहा,”मैंम इस पुरस्कार पर पहला अधिकार आपका है,यदि आप मुझे अवसर न देती तो मैं आज यहाँ तक नहीं पहुंचती।”
“आभारी तो इषिता, ,आज मैं तुम्हारी हूं।अनजाने में ही सही तुमने मेरी आंखें खोल दी।स्वार्थी अध्यापिका को पराजित कर गुरु होने का कर्तव्य स्मरण करा दिया।” कहकर उसके हाथ से पदक लेकर पुन: उसके गले में पहनाकर गले से लगा लिया।सभागार में पुन: एक बार फिर तालियाँ बज उठी…..।सभी अपने अध्यापकों के चरण छूकर शिक्षक दिवस की बधाई देने लगे…..।
— सुरेखा शर्मा
बहुत ही सुंदर शिक्षाप्रद कहानी
बहुत अच्छी कहानी ,गुरु शिष्य का रिश्ता ऐसा ही होना चाहिए और गुरु का कोई स्वार्थ न हो .
बहुत सुंदर कहानी !
बेहतरीन कहानी
शिक्षाप्रद ,सार्थक