तिरस्कार
मैं जानती हूँ जो
खूबसूरती ढूंढती हैं
तुम सब की नज़रें
वो नहीं मिलती मुझमे…..
पर क्या इस से तुम्हे
मेरी अवहेलना करने का
हक़ मिल जाता है ?
या तो खुले आम कह दो
या मुझे आज़ाद कर दो
ऐसे रिश्तों से …….
नहीं सह सकती मैं और
तिरस्कार उस बात के
लिए जिसमे मेरा कोई हाँथ नहीं
ये भगवान की देंन है
किसी को ज्यादा किसी को कम
मैं जानती हूँ मेरा मन खुबसुरत है
मैं प्यार और इज़्ज़त करती हूँ सबकी
तो क्यों सहुँ मैं ये तिरस्कार ????
— रेवा टिबड़ेवाल
बेहतर कविता !
बिलकुल नहीं सहना है