स्त्री
हमने तो जिसे भी चाहा
वहाँ सिर्फ़ धोखा ही
मिला .
जिसके लिये हमने
अपनी हर खुशी
हर चाहत तक
कुर्बान कर दी
पर बदले में सिर्फ़ धोखा
ही मिला .
वो हमे समझ ही
नहीं पाया
हम उसकी खुशी
खोजते रहे
वो हमारी खुशी
छीनता रहा
हम उसे पूजते रहे
वो हमे प्रताड़ित
करता रहा.
क्यों??????
क्योंकि वो एक पुरुष है,
इसलिये उसका अहं उसे
उसकी गलतियों का
एहसास नहीं होने देता
या गलतियाँ करने की
इजाजत देता है !
क्या स्त्री होना हमारा
कसूर है?????
या पुरुष की ज्यादती
बरदाशत करना !
लगता है ,कसूर हमारा
ही है !
पाषाण में इंसान
तलाशने की कोशिश
की हैं हमने !
पर क्या पाषाण कभी
पिघलता है !
अब हमें ही बदलना
होगा अपनी खुशी
और अधिकारों के
लिये लड़ना होगा!
क्योंकि पुरुष ने
हमारे त्याग,प्यार,और
समर्पण को हमारी
कमजोरी समझ लिया हैं !
पर स्त्री होना कोई गुनाह
नहीं स्त्री ने पुरुषों को सिर्फ़
दिया ही है !
बेटी,बहिन,पत्नि,माँ हर रूप
मैं वो अपना सर्वस्व न्योछावर
करती आई हैं ,और बदले मैं
हमेशा अपमान और पीड़ा
उसकी झोली में आये !
जिस आँचल की छाँव तले
वो एक पुरुष को पाल-पोषकर
बड़ा करती हैं !
उसी आँचल को पुरुष बार- बार
दागदार करता आया हैं !
अब और नहीं ,स्त्री कमजोर नहीं !
आज की स्त्री ,अपने अधिकारों के
लिये लड़ना जानती है !
” में एक स्त्री हूँ”
मुझसे हैं ,मेरी पहचान
माँ के रूप में,जननी,
जन्मदात्री, सृजन करने
वाली !!!
अगर मैं न हूँ, तो क्या
होगा इस संसार का???
शायद पुरुष विहीन…..
…राधा श्रोत्रिय “आशा”
विद्रोह के भाव लिये सुंदर रचना…
अब समय को बदलना ही होगा,
बहुत हो लिये अपमान, अब
ना इनको सहना उचित होगा
हर स्त्री को खडा होना ही होगा
धारदार लेखनी
ना जाने कब समय बदलेगा
हमारी पीढ़ी तो जी ली
बढिया कविता। इसमें विद्रोही स्वर है जो सोचने को बाध्य करता है।