‘क्या खोया, क्या पाया’
साँसों की डोर जब,
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया
खुलने लगती फिर
पन्ना दर पन्ना उन
खोये बीते लम्हों की
जीवन रूपी किताब
अंतर्तम मेँ जगने लगता
इक अनुठा सा अहसास
अब तक जीवन यूँ ही गँवाया
बहुत कुछ खोया
नही कुछ पाया
दुर्लभ तन, ये मानव जीवन
पाकर भी, रे! मना, तूने
कीमती समय को नही
सही राह पर लगाया
सब कुछ किया जीवन में
पर बस खुद को ही, ना
जाना, ना खोज पाया
अंत समय जब आया, तो
बस खालीपन का अहसास
ही तो तेरे हाथ आया
अब सोचे क्या मुर्ख प्राणी
कर ली तूने अपने मनमानी
अब तो मृत्यु ने तुझे,तुझसे
ही छीन लेने की है ठानी
बहुत अच्छी कविता !
हार्दिक आभार विजय जी, सराहने के लिये |
सत्य कथन
सार्थक लेखन
हार्दिक आभार विभा दी, आपके इस स्नेह व उत्साहवर्धन के लिये |